________________
राजस्थानी जैन वेलि साहित्य : एक परिचय
प्रो० नरेन्द्र भानावत, एम० ए० साहित्यरत्न वेलि साहित्य की पम्परा संस्कृत-प्राकृत और अपभ्रंश वेलि साहित्य का वर्गीकरण-राजस्थानी वेलि से होती हुई पागे चलकर राजस्थानी, गुजराती और ब्रज- साहित्य विभिन्न जैन भंडारों और पुस्तकालयों में लिखित भाषा में विकसित हुई। इस वेलि साहित्य का अधिकांश प्रतियों के रूप में बिखरा पड़ा है। अब तक पृथ्वीराज कृत भाग जैन संतों द्वारा लिखा गया है। प्रस्तुत निबन्ध में 'कृष्ण रुक्मणी की वेलि' ही प्रकाशित होकर विद्वानों के * नि माहित्य' का सामान्य परिचय प्रस्तत किया जा सामने आई है। उसके प्राधार पर सामान्यतः यह धारणा रहा है।
बना ली गई है कि वेलि-साहित्य शृङ्गारपरक होता है और 'वेलि' का नामकरण-पहले अपभ्रंश से उद्भत हो उसमें विवाह अथवा विलास की ही प्रधानता रहती है पर कर हिन्दी और राजस्थानी साहित्य में कई काव्य-रूप
CG वास्तव में ऐसी बात नही है। वेलि साहित्य विषय की प्रचलित हुए । रास, पवाड़ा, ढाल, फागु, चर्चरी, विवाहलो,
विविधता को लिए हुए है। विषय की दृष्टि से सम्पूर्ण मंगल, धवल प्रादि के नाम इस दृष्टि से उल्लेखनीय हैं ।
राजस्थानी वेलि साहित्य को स्थूल रूप से तीन भागों में 'वेलि' नाम भी इसी प्रकार है। वाङमय को उद्यान मान
बांटा जा सकता है--(१) चारणी वेलि साहित्य, (२) कर ग्रंथों को वृक्ष और वृक्षांगवाची नाम से पुकारने की
जैन वेलि साहित्य, (३) लौकिक वेलि साहित्य । परिपाटी प्राचीन रही है। कुछ उपनिषदों में अध्यायों या
'चारणी वेलि साहित्य' में एक पोर राजकुल तथा अध्यायों के विभाग का नाम 'वल्ली' मिलता है।' काल
सामन्त कुल के विभिन्न वीरों का यशोगान किया गया है, प्रवाह के साथ 'वल्ली' शब्द अध्याय या सर्ग का वाचक न ता दूसरा भार विष्णु और शिव के प्रति अपनी भी रहकर एक स्वतन्त्र काव्य-विधा का ही प्रतीक बन गया।
भावना भी प्रकट की गई है। 'लौकिक वेलि साहित्य' में
रामदेव जी, आईमाता तथा उनके भक्तो का जीवन चरित 'वेलि' शब्द की व्युत्पत्ति को लेकर विद्वानों में प्रधा
वर्णित है। नतः दो मत प्रचलित हैं। पहले मत के अनुसार 'वैलि'
जैन-वेलि-साहित्य; विषय और शैली की दृष्टि शब्द का विकास संस्कृत 'बल्ली' और प्राकृत 'वेल्ली' से
विशिष्टता को लिए हुए है। इसके तीन प्रधान भेद हैहुमा । संयुक्त वर्ण के पूर्व का जब लघु वर्ण दीर्घ होता
१. ऐतिहासिक स्तवनात्मक, २. कथानक और ३. उपहै तब मागे के वर्ण दीर्घ होने पर लघु होने लगते हैं।
देशात्मक । वल्ली का 'व' दीर्घ हुआ अर्थात् 'वे' हुआ तो 'ली' ह्रस्व
(१) ऐतिहासिक जनलि साहित्य-इसमें वेलिकारों हो गई । दूसरे मत के अनुसार 'वेलि' शब्द संस्कृत विलास'
द्वारा अपने गुरुओं (धर्माचार्यों) का ऐतिहासिक जीवनसे बना है। इसकी विकास रेखा यों है-विलास>विलास
वृत्त प्रस्तुत किया गया है। भट्टारक धर्मदास ने भट्टारक >विल्ल>वेल्लि>वेलि ।
गुणकीत्ति की (गुरुवेलि), कांतिविजय की (सुजस वेलि), इनमें अन्तःसाक्ष्य के आधार पर पहला मत अधिक
सकलचन्द्र ने हीरविजयसूरि की (हीरविजयसूरि देश संगत प्रतीत होता है।
ना वेलि), वीरविजय ने शुभविजय की (शुभवेलि), १. कठोपनिषद् में दो अध्याय और छ: वल्लियां हैं। तथा माधुकीत्ति ने जिनभद्र सूरि से लेकर जिनचन्द्र सूरि
तैत्तिरीय उपनिषद् के सातवें, पाठवें और नवमें तक की खरतरगच्छीय पाट-परम्परा का वर्णन करते हुए प्रपाठक को क्रमशः 'शिक्षावल्ली', 'ब्रह्मान्द्र वल्ली' युग्प्रधान जिनचन्द्र सूरि की (सब्वत्थ वेलि प्रबन्ध) जीवनऔर 'भृगुवल्ली' कहा गया है।
गाथा को अपने-अपने काव्य का विषय बनाया है। समय