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भी था गंगराज ने भवणबेलगोलस्य विध्यगिरि में विराज मान गोम्मटेश्वर के चारों ओर परकोटा निर्माण कराया, गंगवाडि के सभी जिनालयों का जीर्णोद्वार कराया और अनेकत्र नवीन जिन मंदिरों को बनवाया। यह प्राचीन कुंदकुंदान्यय का उद्धारक था । इसीलिए गंगराज चायुण्डराय से भी शतशः घन्य कहा गया है । धर्म के बल से इसमें अलौकिक एवं अतुल शक्ति विद्यमान थी, इसी से वह अपने कर्तव्य में सफलता प्राप्त करता था ।
जिस प्रकार जिनधर्मं प्रभाविका अत्तिमब्बे के प्रभाव से गोदावरी नदी का प्रवाह एक दम रुक गया था, उसी प्रकार कावेरी नदी का प्रदम्य एवं अपार प्रवाह जिनभक्ति के कारण गंगराज को तिलमात्र भी हानि नहीं पहुँचा सका। कन्नेगल में चालुक्यों को जीतकर गंगरान जब लौटा तब विष्णुवर्धन ने इसकी विजय से संतुष्ट होकर कोई वर मांगने के लिए इसे विवश किया। इसने राजा से 'परम' नामक ग्राम को मांगकर उसे अपनी पूज्या माता एवं धर्मपत्नी के द्वारा निर्माण कराये गये जिन मन्दिर को सहर्ष दान किया । इसी प्रकार 'गोविंदवाडि' नामक ग्राम को प्राप्तकर गोम्मटेश्वर को समर्पित किया। गंगराज शुभचंद्र सिद्धांतदेव' का शिष्य था ।
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धमेकान्त
वर्ष १५
पत्नी सभी जिनधर्म के बड़े भक्त रहे। गंगराज का लड़का दण्डनायक बोप्पदेव भी पिता की ही तरह वीर तथा धर्मिष्ठ था। गंगराज के सम्बन्ध में ऊपर कही गई सभी बातें अन्यान्य प्रामाणिक प्राचीन शिलालेखों के प्राधार पर ही लिखी गई है।
गंगराज की धर्मपत्नी लक्ष्मीमति भी बड़ी धर्मनिष्ठा रही। इसने वणबेलगोल में अपने अन्यान्य बन्धुओं के स्वर्गबास के स्मृतिरूप में कतिपय शिलालेखों को खुदवाया है। शुभचंद्रदेव की शिष्या यह लक्ष्मीमति विदुषी, पतिपरा यणा, रूपवती, विनयशीला, विनेयजन भक्ता, चतुरा, जिन भक्ता, सौभाग्यवती स्वनामधन्या, साक्षात् लक्ष्मी एवं दान सूरा थी। इसने श्रवणबेलगोल में 'एण्ड कट्टे बस्ति' के नाम से एक भव्य जिनालय निर्माण कराया है ।
श्रवणबेलगोलस्थ 'कसले बस्ति को गंगराज ने अपनी पूज्या माता पोचिकब्बे के वास्ते निर्माण कराया था। यहां के 'शासन बस्ति' के नाम से प्रसिद्ध, जिनालय को भी इसी ने बनवाया था। जिननामपुर को भी इसी ने बसाया । दण्डनायक गंगराज से श्रवणबेलगोल में गुरु शुभचंद्र मेघचंद्र विद्य, माता पोचिकब्बे एवं पत्नी लक्ष्मीमति के नाम से कई सुन्दर स्मारक बनवाए गये हैं। इसी की तरह बड़े भाई, भाई की पत्नी, मामा, मामा का लड़का, उसकी
दण्डनायक गंगराज होय्सल सेना की सेवा में ही अपनी धायु को बिताने वाला वयोवृद्ध सेनानायक था। इसका पिता दण्डनायक एच भी पूर्वोक्त प्रकार, राजा नृप काम का प्राप्तमित्र था। उसी समय से गंगराज राजमहल, सचिव वर्ग और परिवार सबका परिचित बनकर कार्य साहस एवं धर्मनिष्ठा आदि से सबके विश्वास तथा प्रीति का पात्र बन गया था । विष्णुवर्धन के लिये तो गंगराज पितृवत् गौरव का एवं अप्रजवत् प्रीति का पात्र बन गया था। राजा विष्णुवर्धन का विश्वास था कि सेनानायक गंगराज अपना सुदृढ़ वज्र कवच है । इसीलिए गगराज को राजा एवं सचित्रों के साथ निःसन्देह और निर्भय बोलने का अधिकार था। गंगराज को विश्वास था कि विश्वास द्रोही तथा धर्मघातक के लिए पुण्य का बल नहीं है ।
अपने पूर्वजों की राजधानी में फहराते हुए वोलों के ध्वज को देखकर मातृभूमि का भक्त और अभिमानी गंगराज का हृदय दुःखी होकर गंगवाडि के भयंकर युद्ध के लिए तैयार हुआ । गंगनरेश अपने शासनकाल में जैनधर्म के अनुयायी ही नहीं थे, उस धर्म के प्रोत्साहक भी रहे। उनके शासनकाल में गंगवाडि जैनधर्म की मातृभमि रहा । श्रवणबेलगोल में विश्व को आश्चर्य में डालने वाली बाहुबलि मूर्ति का निर्माण गंगराजा राजमहल के सेनानायक वीरमार्तण्ड चामुण्डराय ने कराया था। उस मूर्ति की प्रतिष्ठा के उपरान्त श्रवणबेलगोल की महत्ता बहुत बढ़ गई श्रवणबेलगोल हनसोगे, कलेसवादि आदि कुछ स्थान नहीं हैं, गंगों के शासनकाल में प्रत्येक ग्राम जिन मंदिरों से सुशोभित हो, गंगवादि जिनवादि बन गया था।
दुर्भाग्यवश गंगनरेश चोल नरेशों से पराजित हुए मौर जब गंग सिहासन उलट गया तब उन्हीं के द्वारा उन्नति को प्राप्त जैनधर्म ने भी अपनी प्रतिष्ठा को एक दम खो दिया। वहां पर शैव-वैष्णव धर्म प्रबल हो गया और क्रमशः जैन मंदिर नष्ट होने लगे । जैन मंदिरों की संपत्ति को