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तो यह है कि इसमें अध्यात्म और भक्ति का समन्वय है । 'एकत्त्वसप्तति' में यदि चिदानन्दस्वरूप परमात्मा का सैद्धां तिक विवेचन है, तो 'सिद्ध-स्तुति' में उसी की भाव-विभोर वन्दना है। ऋषभ स्त्रोत तो भक्ति का प्रतीक ही है। इस ग्रन्थ में गुरु भक्ति के निदर्शन पद-पद पर बिखरे हुए हैं। दूसरा कारण है भाषा की सरलता और प्रवाहमयता । यद्यपि दो प्रकरण प्राकृत भाषा में निबद्ध हैं, किन्तु वह तो और भी आसान हैं। भावों का तारतम्य संस्कृत और प्राकृत दोनों ही में एक-सा है।
मैं इस ग्रन्थ के अधिकाधिक प्रचार की कामना करता
साहित्य-समीक्षा
जैन तीर्थ और उनकी यात्रा
लेखक - श्री कामताप्रसाद जैन, सम्पादक पण्डित परमानन्द शास्त्री, प्रकाशक- मा० वि० जन परिषद्, बेहली सन् १९६२, पृष्ठ १८१, मूल्य दो रुपये ।
इस पुस्तक का पहला प्रकाशन सन् १९४३ में हुआ था। अब यह तीसरा संस्करण है। इससे प्रमाणित है कि जनसाधारण के मध्य पुस्तक लोकप्रिय रही। इसकी रचना म० भा० द० जैन परिषद् की परीक्षाओं में बैठने वाले विद्यार्थियों को लेकर की गई थी। इसी दृष्टि से, "इसमें केवल तीर्थों का महत्व और उनका सामान्य परिचय कराया गया है।" इससे विद्यार्थियों को भारतवर्ष में फैले जैन तीर्थो का नाम, महत्त्व और साधारण परिचय प्राप्त हो जाता है। दूसरी धोर जैन भक्तों को इसके सहारे तीर्थयात्रा सुगम हो जाती है। विद्यार्थी भौर जैन भक्त इससे लाभान्वित हुए और होंगे।
इस संस्करण के परिशिष्ट २ में कतिपय तीर्थ क्षेत्रों का ऐतिहासिक परिचय भी दिया है। उसके रचयिता पं० परमानन्द शास्त्री हैं। जैन तीर्थ क्षेत्रों के ऐतिहासिक घर भौगोलिक परिचय की नितांत भावश्यकता है। उस पर एक प्रामाणिक ग्रन्थ अधिकारी विद्वानों के द्वारा लिखा जाना चाहिए। मैं जहाँ तक समझता है, उसके लिए जिस
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सामग्री की आवश्यकता है, उसके संकलन में ही वर्षों लग जायेंगे। भौगोलिक अध्ययन के लिए भारत-व्यापी भ्रमण और प्राचीन तीर्थयात्रा-वृत्तान्तों का अध्ययन और खोज करनी होगी । यह पुस्तक तो विद्यार्थी और परीक्षा की सीमा तक ही रहती तो अच्छा था ।
पुस्तक की भाषा आसान है भोर सर्वसाधारण की समझ में आ जाती है । कहीं-कहीं प्रूफ-सम्बन्धी अशुद्धियां वम रह गई है। वैसे पुस्तक में लोकप्रिय होने के सभी गुण मौजूद हैं।
श्री हनुमानचरित्र
लेखक- मास्टर सुखचन्द पदमशाह पोरवार, पद्यरचयिता कवि भी ब्रहाराय जी प्रकाशमूल किसनदास कापड़िया, सूरत, पृष्ठ- १४४, मूल्य-वो रुपये ।
हनूमान चरित्र के इस संस्करण में विशेषता केवल इतनी है कि इसके साथ 'ब्रह्मरायमल्ल' का पद्यबद्ध 'हनु मान चरित्र' भी प्रकाशित हुआ है । ब्रह्मरायमल्ल ने इसकी रचना वि० संवत् १६१६ में की थी। वे एक उच्चकोटि के कवि थे। उनकी अन्य रचनायें भी उपलब्ध हैं । ४०० वर्ष पुराने इस काव्य का प्रकाशन प्रसन्नता का विषय है । किन्तु साथ ही उसकी अशुद्धियों पर जब ध्यान जाता है, तो हृदय को दुःख होना स्वाभाविक ही है। अच्छा होता यदि उसे छापने के पूर्व किसी हिन्दी के विद्वान् को दिखा लिया होता ।
इस ग्रन्थ के 'प्राक्कथन' में, ब्रह्मचारी शीतलप्रसाद जी ग्रन्थमाला के अन्तर्गत प्रकाशित ११ ग्रंथों का उल्लेख किया गया है। दान देकर इस ग्रन्थ-मामा को समुन्नत बनाने की बात भी लिखी है। मैं उसका समर्थन करता हूँ किन्तु मेरा निवेदन है कि भले ही तीन वर्ष में एक ग्रन्थ निकले, सुसम्पादित धौर विशुद्ध होना चाहिए। इन ग्रंथों को जनमित्र के प्रचार का सहायक भार न बनाया जाये । -डा० प्रेमसागर