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तीसरा खण्ड 'समन्वय या एकीकरण' शीर्षक से रखा हिन्दी-अनुवाद पं० बालचन्द्र जी शास्त्री का किया गया है । इसमें स्यावाद को समन्वय का प्रतीक माना है। हुमा है। जीवराजग्रन्थमाला के अन्य ग्रन्थों के हिन्दी-अनुभारतीय दर्शनों में जो भिन्नता पाई जाती है. वह वास्त- वाद भी उन्होंने किये है। मूल श्लोकों का भाव स्पष बिक नहीं है, अपेक्षाकृत दृष्टि से विचार करने पर वे और सरलता से वे अभिव्यक्त करना जानते हैं। मनुवाद सभी अपने-अपने स्थान पर ठीक है। उन सब में एकता में यह ही होना भी चाहिए। माज से १०० वर्ष पूर्व इस का प्रतिपादन करने वाला 'स्याद्वाद' जैन प्राचार्यों की ग्रन्थ का ढुंढारी हिन्दी में दो व्यक्तियों ने अनुवाद किया महत्वपूर्ण देन है। लेखक ने बड़े आसान ढंग से इसे दिखाने था, किन्तु उसमें अनेक त्रुटियां थीं। वि० सं० १९५५ में का प्रयास किया है अन्त में 'दर्शनों का समन्वय' अत्यधिक मराठी-अनुवाद और १९७१ में किए गये हिन्दी-अनुवाद प्राकर्षक और विद्वान् लेखक के मजे अध्ययन का प्रतीक भी 'प्रस्तुत' की तुलना नहीं कर पाते। आधुनिक पाठक हैं । सब से बड़ी विशेषता है कि कहीं उलझन नहीं है। इस अनुवाद के सहारे मूल विषय को पूर्णरूप से अवगम इससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि लेखक ने सब कुछ भली कर लेता है। भांति समझा-देखा है। हम सस्ता साहित्य मण्डल के इस
प्रस्तावना पहले अंग्रेजी में है, फिर हिन्दी में। किन्तु प्रकाशन का हार्दिक स्वागत करते हैं। पाठक रुचि लेंगे,
हिन्दी की प्रस्तावना अंग्रेजी का अनुवाद नहीं है। दोनों ऐसा मुझे विश्वास है।
स्वतन्त्र लिखी गई हैं और एक-दूसरे की पूरक हैं। उनमें पदमनन्दि पंचविंशतिः
ग्रन्थ-ग्रन्थ का विषय, ग्रन्थकार, काल-निर्णय मादि छोटेलेखक-मुनि पचनन्धि, सम्पावक-डा. मा० ने० छोटे शोध परक निबन्ध हैं। यह आवश्यक नहीं है कि हम उपाध्ये और डा.हीरालाल जैन, प्रकाशक-अनसंस्कृति उनके द्वारा स्थापित तथ्यों से सहमत ही हों, किन्तु उन्हें संरक्षक संघ, सोलापुर, सन् १९६२, हिन्दी अनुवादक- पुष्ट करने का अच्छा प्रयास किया गया है। बालचन्द्र शास्त्री, पृष्ठ-संख्या-६२, २८४, मूल्य १० इस ग्रन्थ के रचयिता मुनि पद्मनन्दी वि० सं० १०७३ रुपया।
से ११९३ के मध्य कभी हुए हैं। डा. ए. एन. उपाध्ये के इस संस्करण में मूल ग्रन्थ के साथ संस्कृत टीका, अनुसार इस ग्रन्थ के चौथे प्रकरण के कन्नड़-टीकाकार हिन्दी-अनुवाद, प्रस्तावना और प्रधान सम्पादकीय वक्तव्य पद्मनन्दी ही मुनि पद्मनन्दी थे। यदि ऐसा सत्य है तो हैं । प्रूफ की कहीं अशुद्धि नहीं। छपाई उत्तम । बाह्य वे ११९३ के निकट कहीं पास-पास हुए हैं। किन्तु यह साज-सज्जा का पूर्ण ध्यान रखा गया है। यद्यपि ग्रन्थ दो केवल अनुमान पर भाधारित है। उसकी पुष्टि सपष्ट बार पहले भी प्रकाशित हो चुका है, किन्तु उनमें न तो तथ्यों पर निर्भर होनी चाहिए । ग्रन्थ और ग्रन्थकार का समीक्षात्मक विवेचन ही था और सम्पादकों का यह उहा-पोह कि जब ग्रन्थ का नाम न ऐसा अनुवाद । प्रत यह ग्रन्थ विद्वान् और जनसाधारण पंचविंशति है, फिर उसमें २६ प्रकरण क्यों हैं, निरर्थक-सा पाठक दोनों ही के लिए लाभकारी है।
ही है । सतसैया, शतक, छत्तीसी, बत्तीसी और पच्चीसियों ग्रन्थ का सम्पादन पाठ हस्तलिखित और दो मुद्रित के हिन्दी पाठक जानते हैं कि उनके रचयिता नाम के द्वारा प्रतियों के आधार पर किया गया है। प्राचीन ग्रन्यों की
निर्धारित सीमामों में कभी बंधे नहीं। सभी में दोहे, सम्पादन-कला का एक विशिष्ट ढंग होता है। जीवराज कवित्त या कोई अन्य छन्द दो-चार इधर-उधर बन ही प्रन्थमाला के सम्पादक उसमें निपुण हैं । वे भारत की जाते थे। इस पाधार पर खोज का कोई खास पहल या उस शैली से परिचित हैं और पश्चात्यशैली का अध्ययन
पालीकामायन मोड़ निर्भर नहीं करना चाहिए। किया है। दोनों का समन्वय उनके सम्पादन की विशे- यह ग्रंथ १००० वर्ष से जैन जनता के मध्य प्रसिद्ध है षता है।
इसकी लोकप्रियता के दो मुख्य कारण हो सकते हैं-प्रथम