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साहित्य-समीक्षा
मात्म रहस्य
लेखक ने अन्य को तीन खण्डों में विभाजित किया लेखक-रतनलाल जैन, प्रकाशक-सस्ता साहित्य है-पात्म-अनुसन्धान, सत्यमार्ग और समन्वय या एकीमसल नई दिल्ली, सन् १९६१०, भूमिका लेखक- करण । प्रात्म-अनुसन्धान में मात्मा का पुद्गल से पृथक सम्पूर्णानन्द, पृष्ठ संख्या-२२८, मूल्य-३ रुपये ५० अस्तित्व दिखाते हुए, उसका वास्तविक स्वरूप, निवास नए पैसे।
स्थान और अमरत्व सिद्ध किया गया है। ऐसा करने में, यह 'मात्मरहस्य' का दूसरा संस्करण है । इससे स्पष्ट श्री रतनलालजी ने प्राधुनिक विज्ञान और मनोविज्ञान के है कि इस प्रन्थ को पढ़ने में लोगों ने रस लिया है । निरा- तथ्य भी उपस्थित किये हैं, जिससे उनके निष्कर्षों में कार, अरूपी, अदृष्ट आत्मा का विवेचन एक शुष्क विषय सबलता और माकर्षण पा सका है। यथास्थान दृष्टान्तों है। किन्तु लेखक ने उसका गहरा अध्ययन किया, समझा को उपन्यस्तता ने विषय को सुगम मौर सुबोध बनाया और फिर प्रासान शैली, सरल भाषा में प्रकट किया। है । इसी खण्ड में कर्म-सिद्धान्त और जगत-निर्माण जैसी इसी कारण इस नीरस से माभासित विषय में प्रात्मानन्द कठिन और विवाद-ग्रस्त समस्याओं को भी उठाया गया झलक उठा है। मध्यम द्धि का पाठक उसे भली भांति है। प्रात्मा के स्वरूप पर विचार करने के लिए यह समझ लेता है । यह ही उसकी खूबी हैं।
स्वाभाविक था। यह सत्य है कि लेखक ने जिन तथ्यों पर
पहुँचना चाहा, वे जैन प्राचार्यों के द्वारा प्रतिपादित थे, (पृष्ठ २३६ का शेष) माशांबरेभ्यः कमनीयकीर्ति श्रीसोमकीर्तिः किल यो बभूव ।।
किन्तु अन्य प्राचार्यों के प्रतिपादित विषय का निराकरण तस्मात्परं श्रीविजयादिसेनः पट्टे तदीयं परमं बभार ।४३॥
करके नहीं। लेखक की यह शालीनता समूची पुस्तक में
__छाई हुई है। सच्छास्त्र रत्नाकर चंद्रतुल्यः शीलगुणभूषित दिव्यदेहः ।
दूसरे खण्ड में प्रात्मा के 'सच्चिदानन्द' रूप पर विचार पट्ट शुभं वैजयसेन मुग्रं पुण्याद्विभत्यंबुजकीर्ति रेषः ।।४४।।
किया गया है। प्रात्मा की सच्चिदानन्द अवस्था सदैव कंदर्प सोद्धत वैनतेयः साम्याग्नि निर्दग्धकषायवृक्षः ।
लक्ष्य ही बनी रहती है अथवा प्राप्त भी की जा सकती शुद्धपदे श्रीकमलादिकीर्तेः श्रीरत्नकीतिः किल संबभूव ॥४५॥
है ? एक महत्वपूर्ण विषय है, जिस पर लेखक ने गम्भीरता चारित्रसंभार विभावितात्मा विद्वज्जनेष्वाथतमो गुणोधः ।
से विचार किया है। कर्म-बन्धन से मुक्त होते ही पात्मा सद्रलकीति प्रभुपट्टधारी सूर्यग्रमोऽभूत सुमहेन्द्रसेनः ।।४।।
अलौकिक दिव्य प्रानन्द में मग्न हो जाती है। लेखक का वादीभपंचास्य समानसत्त्वः पंचाक्षसौख्येषु विरक्तचित्तः ।
कथन है, "कर्म-परमाणुमों के समूह कर्माण शरीर के श्रीरामसेनस्य परंपराया मासीद्वरिष्ठस्तु विशालकीतिः ।४७।
सर्वथा नष्ट हो जाने से, संसार भ्रमण, रोग-व्याधि प्रादि तत्पट्ट पंकेरुहचित्रभानुश्चिद्रूपध्यानामृतपानपुष्टः ।
समस्त दुखों से सदा के लिए मुक्त हो जायगा ," मागे मान्यः सतां संयम शीलभाजां पायाज्जनान् विश्वविभू
षणाल्यः ॥४॥
इस सच्चिदानन्द को प्राप्त करने के उपायों का निरूपण शुद्ध द्वादशभावनानु भवतः प्राप्तश्चरित्रं परं।
करते हुए निवृत्ति और प्रवृत्ति-मार्गों की तुलना की गई है। ध्यायत् धर्ममघापहं सुमनसा रौद्रातभेदोज्झितः ॥
इसमें भी जैनस्वर प्रबल है। शायद दोनों का सूक्ष्म दार्श
निक भेद दिखाना न तो लेखक को अभीष्ट ही था और दिक संघोत्तम रामसेन कुलरवेजातोंशुमाली महान् । तत्पद्रेश्वरविश्वभूषणगुरु कुर्यात्सतां संपदा ॥४॥
न दिखाया ही गया है। यह भी सच है कि सांसारिक सुख यावन्मेरूविश्व महीयावत् यावत् चंद्राकतारका।
की पोर दुःख की अपेक्षा अधिक झुकाव प्रात्मा के मानन्द गुर्वावलि शुभार्चेषां तावन्नंदतु सास्वती ॥५०॥ रूप होने की पुष्टि नहीं करता। दोनों एक दूसरे के ॥ इति गुर्दावलि समाप्ता॥
उल्टे हैं।