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दण्डनायक गंगराज की वृत्ति में नाय का अर्थ ज्ञात अथवा नाग ( नाग वंशी) किया है इतिहास में ज्ञात नाम का कोई प्रसिद्ध वंश नहीं है। नागवंश बहुत प्रसिद्ध है। महाभारत के अनुसार नागों की उत्पत्ति कश्यप मुनि की पत्नी कद्र से मानी जाती है। महाभारत और विष्णुपुराण में जहां इनके वर्तमान वंश का उल्लेख मिलता है, वहाँ इन्हें नागवंशी मोर जहाँ इनके मूल वंश और गोत्र का उल्लेख होता है, वहाँ उन्हें इक्ष्वाकुवंशी और कश्यप गोत्री कहा गया है।
जैनधर्म से नाग जाति का सम्बन्ध बहुत पुराना है। कच्छ और महाकच्छ के पुत्र नमि और विनमि को नागराज ने विद्याएँ दीं और वैताढ्य पर्वत पर उनके लिये नगर बनाये थे । जैन परम्परा में नाग पूजा का इतिहास की लगभग उसी समय का है ।
किरण ५
अनेक प्रसंगों में नाथपुत कहा गया है। बौद्ध पिटकों में भी उनका उल्लेख 'निग्गंठ नासपुत्त' के नाम से हुआ है नाम और नाव का संस्कृत रूप 'ज्ञात' होता है। इसलिये भगवान को ज्ञात पुत्र माना जाता है। नाय कुल का नाम है। भगवान महावीर का कुल नाय या नात था इसलिये वे ज्ञात पुत्र या ज्ञान सुत्र कहलाते थे । कुछ प्राधुनिक विद्वान 'नाथ' का संस्कृत रूप शातू मानते हैं। इस ज्ञात शब्द के आधार पर ही ने ज्ञातृ का सम्बन्ध बिहार के भूमिहारों की जयरिया जाति से जोड़ते हैं। किंतु प्रतीत होता है कि ज्ञात और ज्ञातृ ये दोनों यथार्थ नहीं हैं । भगवान का कुल नाग होना चाहिये । णाय-पुत्त की संस्कृत छाया 'नाग पुत्र' भी हो सकती है। चूर्णियां प्राकृत में है और उनमें गाय या णात ही मिलता है । क्वचित् ज्ञात भी मिलता है। टीकाकाल में यह भ्रम पुष्ट हुआ है। प्रभवदेवसूरि पहले टीकाकार हैं, जिन्होंने भोपपातिक सूत्र १४
दण्डनायक गंगराज
भगवान सुव्रत और अरिष्ट नेमि गौतम गोत्री हरिवंशी ये और शेष २२ तीर्थकर काश्यप गोत्री इवाकुवंशी मे
लेखक - विद्याभूषण पं० के० भुजबली शास्त्री
महाप्रचंड दण्डनायक गंगराज उन गंग नरेशो का वशज था, जो पूर्व में गंगवाडि ९६००० प्रदेशों को स्वतंत्रता से मत्त हाथियों की तरह शासन करने वाले थे । इसका श्रद्धेय पिता दण्डनायक एच नरेश नृप काम का प्राप्त मित्र था । विमणि मुल्लूर के प्राचार्य कनकनन्दी ही एच के गुरु थे । इसके एच, राज, एचिज, एचिगांक एवं एचिराज आदि अनेक नाम थे। एच को 'बुधमित्र' उपाधि भी रही। दण्डनायक एचवीर हो नहीं था, धर्मात्मा भी था और इसने देवालयों को दान भी दिया था ।
एच की धर्म पत्नी एवं गंगराज की पूज्य माता पोचिकब्बे के द्वारा भी अनेक धर्म - कार्य संपन्न हुए थे । इसके द्वारा श्रवणबेलगोल में कई जिनालय निर्माणित हुए थे। पोचिये अंत में सलेखनापूर्वक पवित्र श्रवणबेलगोल महा क्षेत्र में स्वर्गासीन हुई। उसकी स्मृति में पुत्र दंड नायक गंगराज ने शक सं० २०४७ (वि० सं० १९७८ ) में एक निषिधिका का निर्माण कराया था ।
गंगराज की समाधि गत पञ्च महाश, महासामताधिपति, महाप्रचण्ड दण्डनायक, वैरिभयदायक, गोत्र पवित्र, बुधजनमित्र श्रीजैनधर्मामुताम्बुधि प्रवर्धनसुधाकर सम्यकुवरत्नाकर माहाराभय भैषज्यशास्त्रदानविनोद भव्य जनहृदयप्रमोद, विष्णुवर्धन भूवाल होयसलमहाराज राज्याभिषेक पूर्णकभ, धर्महम्यद्धरण मूलस्तंभ और द्रोहघरट्ट आदि उपाधियां थीं। इसने चालुक्य नरेश त्रिभुवनमल्ल पेर्माडिदेव की विशाल सेना को जीत कर प्रत्यधिक प्रताप दिखलाया था। इसी प्रकार तलका कोंगु, गिरि आदि जीतने एवं भावियम नरसिंह, दामोदर और तिगलों को परास्त करने में अपने असीम शौर्य को व्यक्त किया था ।
जिस प्रकार इंद्र को वज्ज, बलराम को हलायुध, विष्णु को चक्र, शक्तिधर को शक्ति और अर्जुन को गांडीव सहायक था। उसी प्रकार राजा विष्णुवर्धन को गंगराज सहायक था । यह जितना पराक्रमी या उतना हीं धर्मात्मा