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शोध-कशा
श्री छोटेलाल जैन, कलकत्ता
प्रांत की गत तृतीय और चतुर्थ किरणों में उपरोक्त शीर्षक से दो तेल भीनीरजजी के प्रकाशित हुए थे। लेखक ने जैनपुरातत्व के कई नूतन निदर्शनों पर अच्छा प्रकाश डाला है । इन लेखों के सम्बन्ध में कुछ और ज्ञातव्य बातों का उल्लेख करना आवश्यक है ।
१. तीन विलक्षरण जिनबिम्ब - इस लेख में आदिनाथ की प्रतिमा का विवरण लिखते हुए लेखक ने "दो सिंहाँ के बीच में धर्मचक्र के अंकम" को बुद्ध शिल्प की प्रतिकृति बताई है, यह ठीक नहीं है, क्योंकि 'धर्मचक्र' का अङ्कन दोनों—जैन और बौद्ध सम्प्रदायों में प्रचलित था। बहि
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ख दो सिंहों के बीच में धर्मचक्र होते हुए भी, वहां दो सिंहों से सिहासन सूचित होता है और धर्मचक्र के साथ उनका कोई संबंध नहीं है। हां, जहां दो मृगों के मध्य में धर्मचक्र का अडुन होता है, वहाँ बुद्ध के मृगन्यान (सारनाथ) में पहिले-पहल धर्मचक्र प्रवर्तन को सूचित करना विद्वान लोग मानते है पर इस प्रकार दो मुगों सहित । धर्मचक्र, जैन प्रतिमाओं में भी उपलब्ध है। लेखक ने जो
श्रीर दूसरे में सुरक्षित जल का पात्र लिए हुए अंकित है । विद्याधरी का चित्रण भी पूर्वोगत मुद्रा में आभरण सहित किया गया है ।
इस प्रतिमा के अतिरिक्त इस गुफा मे भगवान यादि नाथ की दो, पार्श्वनाथ की तीन तथा अन्य तीर्थंकरों की तीन, इस प्रकार सात लड़गासन तथा पद्मासन प्रतिमाएँ और हैं ये डेढ़ फुट से लेकर पौने चार फुट तक ऊँची है जिन में से दो सिरोभाग से खंडित हैं । इनमें से दो तीन मूर्तियां मध्यकालीन प्रतीत होती है जो सम्भवत: इन गुफा के जीर्णोद्वार के समय अन्यत्र कही से उठाकर यहाँ रख दी गई होंगी ।
जैन गुफा मन्दिरों की श्रृंखला में सीरा पहाड़ का स्थान बहुत महत्वपूर्ण है और यहाँ मास-पास विशेष अनुसंधान की आवश्यकता है ।
यह लिखा है कि "तीर्थकर प्रतिमाओं में इस प्रकार के केशराशि - संयोजन ( जटाजूट) निश्चित ही अद्यावधि अनुपलब्ध हैं।" यह ठीक नहीं है। मैं यह बतला देना चाहता हूँ कि आदिनाथ (ऋषभदेव ) की जितनी प्राचीन मूर्तियाँ बाज तक उपलब्ध हुई हैं, वे सब जटाजूट सहित है। पौर उनकी संख्या कई सौ है जिस प्रकार पार्श्वनाथ की मूर्ति सर्पकों सहित होती है उसी प्रकार प्रादिनाथ की जटाजूट सहित इन दोनों तीर्थकरों के जीवन की ये विशेष घटनाओं को सूचित करती हैं । श्रादिपुराण पर्व १ श्लोक १ मे लिखा है
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'चिरं तपस्यतो यस्य जटामूनि वभुस्तराम् । ध्यानाग्निदग्धकर्मेन्धनिर्मद् धूमशिखाइव ॥६॥ अर्थात् चिरकाल तक तपश्चरण करने के कारण जिनकी बढ़ी हुई जटाएँ ऐसी शोभायमान होने लगी मानों शुक्ल ध्यानरूपी अग्नि के द्वारा जलाये हुए कर्मरूपी ईंधन से निकली हुई घूम की शिला ही है।
२. पतियान दाई - इस मंदिर के द्वार के दोनों प्रोर गंगा-यमुना का जो अङ्कन किया गया है, वैसा हिन्दु मंदिरों में ही उपलब्ध होता है, पर जैन मंदिरों में ऐसे न विरल ही उपलब्ध होते है । वास्तव में नीरज जी ने एक दुर्लभ जैन कलाकृति प्रस्तुत की है। गंगा-जमुना के पार्श्व में जिन दो चतुर्भुज मूर्तियों का उल्लेख किया है वे यह न होकर द्वारपाल है और ऐसे द्वारपाल अन्यत्र भी उपलब्ध हैं किन्तु इनके हाथों में गदा, नाग और पाश हैं पर कोई चतुष्पद प्राणी नहीं है यह भ्रम हुआ है।
३. भगवान महावीर ज्ञात पुत्र थे या नाग पुत्र ?जैनभारती के ता० १८ नवम्बर १९६२ के वर्ष १० अङ्क ४६ में तेरापंथी वेताम्बर सम्प्रदाय के आचार्य श्री तुलसी के शिष्य मुनि श्रीनथमल जी का एक नोट प्रकाशित हुआ है जिसका सारांश यह है कि भगवान महावीर इक्ष्वाकुवंशी, काश्यपगोत्री क्षत्रिय थे और नागवंशी थे । नागवंश की उत्पत्ति इक्ष्वाकुवंश से हुई है। भगवान महावीर को
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