Book Title: Anekant 1962 Book 15 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 239
________________ किर जो लोग स्याद्वाद को नहीं मानते उनका ऐसा अभि-, प्राय है कि जो वस्तुतः सत्य है, वह सर्वथा । सर्वत्र सर्वतो भावेन निर्वचनीय रूप से है ही नही है, ऐसा नहीं, जैसेप्रत्यगात्मा । और जो कहीं, किसी प्रकार, कभी, किसी रूप से है, यह कहते हैं, जैसे— प्रपञ्च, वह तो व्यवहारतः है, न कि परमार्थतः; क्योंकि वह विचार की कसौटी पर खरा नहीं उतरता । केवल किसी वस्तु का ज्ञानमात्र उसकी वास्तविकता का व्यवस्थापक नहीं हो सकता, अन्यथा शुक्तिम मरीचिकादि में रजततोयादि की वास्तविकता सिद्ध होने लगेगी । लौकिक जनों के विचार के आधार पर यदि पदार्थों की वास्तविकता की व्यवस्था मानें, तब तो देह में आत्माभिमान की वास्तविकता स्वीकार करनी पड़ेगी । विद्वानों के मत में, देहात्माभिमान, विचार से सर्वथा बाधित होता ही है। २०६ श्रतः 'स्थाणुर्वा पुरुषो वा' इस संशय स्थल की तरह सत्त्व एवं प्रसत्व के सन्देह स्थल के लिए स्याद्वाद सिद्धान्त मानने वाले को कोई अन्य उपाय ढूंढना पड़ेगा । यद्यपि जैन सम्प्रदाय में हमचन्द्राचार्य के पहले भी श्री गौतमस्वामी, श्री सुषमंस्वामी प्रभृति अनेक गणधर, श्री भद्रबाहु प्रभूति श्रुतकेवली, श्रीसिद्धसेन दिवाकर, १४४४ ग्रन्थों के प्रणेता हरिभद्रसूरि तत्त्वार्थाधिगम सूत्र के प्रणेता उमास्वाति, देवधिगणिक्षमाश्रमणादि अनेक पूर्वधर, प्रौढ़गीता महाप्रभावक हुये हैं; तथापि जैनेतर दर्शनों में इनका एवं इनके साहित्य का जैसा विशिष्ट स्थान है, वैसा अन्य लोगों का नहीं है । जैनेतर दर्शनाचार्यों का किसी भी हेतु यदि जैनदर्शन के साथ कुछ भी सम्बन्ध होता है, तो सर्वप्रथम इसी महामहिमशाली विद्वान् के साहित्य पर दृष्टि पड़ती है । १२वीं शती से लेकर प्राज तक के सभी श्रेष्ठ साहित्यकारो के गणनाप्रसङ्ग में इस महान् विद्वान् का नाम आदरपूर्वक लिया जायेगा, इसमें दो मत नहीं । ऐसे महान् पुरुष द्वारा विरचित व्याकरण किसी भी विद्वान् को प्रभावित करने में समर्थ है । अतएव सोमेश्वर कवि ने कहा है "वैदुष्यं विगताश्रयं श्रितवति श्री हेमचन्द्रे दिवम् ।" अन्त में यह आशा एवं पूर्ण विश्वास है कि अपेक्षित यावत् सामग्री से संभूषित इस व्याकरण का विद्वान् लोग अवश्य अवगाहन करेंगे । ग्रन्थकार के इलोक में 'पदलांखिता इमे' की जगह 'स्यात्पदसत्यलांधिता' पद पाया जाता है। -सम्पादक सिद्धमचा शब्दानुशासन अपि च सत्त्व और असत्त्व के परस्पर विरोधी होने से उनका समुच्चय नहीं होता है, ऐसा मानने पर विकल्प होगा । किन्तु वस्तु में विकल्प की संभावना होती नहीं । अन्योन्यपक्ष प्रतिपक्षभावाद् यथा परे मत्सरिणः प्रवादाः । नयानशेषानविशेषमिच्छन्न पक्षपाती समयस्तथा ते ॥ स्तुतिकारोप्याह- नयास्तवस्यात्पदलाञ्छिता इमे रसोपविद्धा इव लोहधातवः । भवन्त्यभिप्रेतफला यतस्ततो भवन्तमार्याः प्रणता हितोषिणः ।" wwwwwwwwww. wwwww wwwwww अनेकान्त की पुरानी फाइलें अनेकान्त की कुछ पुरानी फाइलें अवशिष्ट हैं जिनमें इतिहास पुरातत्व, दर्शन और साहित्य के सम्बन्ध में खोजपूर्ण लेख लिखे गए हैं। जो पठनीय तथा संग्रहणीय है । फाइलें प्रनेकान्त के लागत मूल्य पर दी जायेंगी, पोस्टेज खर्च अलग होगा । फाइलें वर्ष ४, ५, ८, ९, १०, ११, १२, १३, १४ की हैं अगर आपने अभी तक नहीं मंगाई हैं तो शीघ्र ही मंगवा लीजिये, क्योंकि प्रतियाँ थोड़ी ही भवशिष्ट हैं । मैनेजर 'अनेकान्त' बोर सेवामन्दिर, २१ दरियागंज, बिल्ली

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