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प्र०
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सप्तम
सिडहेमान-सम्मानुशासन
२०७ निर्मित हैं। इस तीसरे विभाग में निम्नांकित सूत्र, पाद मतः स्यादाद का माश्रयण करके', यह अर्थ होगा; शब्दामादि है
नुशासन का प्रकरण होने से सूत्र में 'शब्दानाम्' इसका १७४ अध्याहार होगा; तथा सिद्धि शब्द का अर्थ शब्दानित्यत्व१३
बादी के मत में "निष्पत्ति" एवं शब्दनित्यत्ववादीके मत १४१
में 'शप्ति; स्याडादमत में निष्पत्ति एवं ज्ञप्ति दोनों अर्थ
मानने में कोई आपत्ति नहीं है। इस प्रकार स्याद्वाद का ४९८
प्राश्रयण करके शब्दों की निष्पत्ति या ज्ञप्ति होती है, ऐसा (४) तद्धित वृत्ति
सूत्रार्थ समझना चाहिए। स्याद्वाद शब्द का अर्थ यह हैइस विभाग में तद्धित प्रत्यय, समासान्त, प्लुत विवे- "स्याद् रूपो वादः स्याद्वादः" ऐसा समास करने पर वाद चन, न्यायसूत्र तथा उनका विस्तृत विवेचन सम्यक् निरू- शब्द अनेकान्त का द्योतक है। 'स्यादित्येतस्य वादः' ऐसा पित है। विवरण निम्नांकित है:
समास करने पर 'स्यात्' यह अव्यय वाचक रूप से षष्ठ
अनेकान्त का द्योतक है। इस तरह दो प्रकार से स्याद्वाद
पदार्थ का निरूपण उन उन ग्रन्थों में किया गया है। २१६
'स्यात्' इस अव्यय को वादक माना जाय तो उसी से १८५
सभी अर्थ का बोध हो जायेगा। "स्यादस्त्येव" इत्यादि १७२
प्रयोगों में 'प्रस्त्येव' आदि प्रयोग व्यर्थ अथवा पुनरुक्त हो १८२
जायेगा; इसलिए 'स्यात्' इस अव्यय को भनेकान्त द्योतक १२२
ही स्वीकार करना चाहिये । यदि निपातों के द्योतकत्व
पक्ष के अभिप्राय से 'स्यात्' इस अव्यय को गुणभावं से १३६५
अनेकान्त का द्योतक मानें, तो अनेकान्त वाचक पद का भी इस व्याकरण का आठवां अध्याय द्वितीय महाविभाग के
गुणभाव से ही वाचकत्व स्वीकार करना पड़ेगा। क्योकि, रूप में प्रसिद्ध है। इसके चार पाद हैं। चारों पादों में
ऐसा सिद्धान्त है कि जिस रूप से वाचक पद कहता है, १११६ सूत्र है । इस अध्याय में केवल प्राकृतादि भाषाओं का व्याकरण है। शौरसेनी भाषा के लिए २७, मागधी
उसी रूप से निपात-द्योतन करता है। यदि 'स्यात्' यह
अव्यय किसी से भी अनुक्त अनेकान्त अर्थ का द्योतन भाषा के लिए १६, पैशाची भाषा के लिए २२, चूलिका
करता है, ऐसा मानें तो स्यात् शब्द के प्रयोग बल से ही पैशाची भाषा के लिए ४, अपभ्रंश भाषा के लिए १२०,
अनेकान्त अर्थ की प्रतीति होने से स्यात् शब्द को वाचक प्राकृत भाषा के लिए ६३० सूत्र हैं। संस्कृत भाषा एवं
ही मानना पड़ेगा, गौणरूपेण उसको अनेकान्त घोतक प्राकृतादि ६ भाषाओं के परिज्ञान के लिए यह एक ही
मानना असंभव है। इसी तरह प्रधान रूप से स्यात् इस शब्दानुशासन सर्वतोभावेन पर्याप्त है।
अव्यय को अनेकान्त का द्योतक मानना भी सामञ्जस्यपूर्ण स्याद्वाद और हेमशब्दानुशासन
नहीं है, क्योंकि प्रधान रूपेण अस्ति इत्यादि शब्दों से इस व्याकरण के किसी भी विभाग और प्रयोग का
अस्तित्वादि अर्थ के बोध होने पर 'स्यात्' पद से प्राधान्येन विचार करते समय "सिद्धिः स्याद्वादात्"', यह अधिकार
उसी अर्थ का द्योतन, व्यर्थ है। स्यात् शब्द को नास्तिसूत्र उपस्थित ही रहता है। क्योंकि समग्र शब्दानुशासन में
त्वादि पर्थ का द्योतक भी नहीं माना जा सकता, क्योंकि व्यापकरूप से इस सूत्र का अधिकार है । 'स्याद्वादात्' इस
अनभिहित अर्थ का द्योतन, नहीं देखा गया है। अस्ति पद पद में "गम्यपः कर्माधारे"" इस सूत्र से पञ्चमी होती है।
प्रधानतया अस्तित्व को कहता है और 'स्यात्' पद गौण१. हेम० १३११२ । २. हैम० २।२।७४ ।
तया नास्तिकत्व को कहता है। इस प्रकार 'स्यात्' पद प्रधान
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मातही