________________
कात्तिकेय श्री सत्याश्रय भारती
(गतांक से मागे)
गये।
व्यभिचारजातता पाप नहीं है। बेटी, बहिन से सम्भोग 'वत्स ! तुम सरीखा सत्पात्र पाकर मुझे बहुत प्रस- करना पाप है, परन्तु ऐसे सम्बन्ध से पैदा होना पाप नहीं न्नता होती है। तुमने किस वंश को सौभाग्यशाली बनाया है। धर्म तो मनुष्यमात्र का नहीं, प्राणिमात्र का है।'
'गुरुवर्य । क्या धर्म में पात्र-अपात्र का विचार नहीं 'महाराज! मेरे पिता ने अपनी ही कन्या के साथ किया जाता?' शादी कर ली थी। उसी का फल मेरा यह शरीर है।' किया जाता है। कीड़े-मकोड़े आदि तुच्छ प्राणी धर्म
'हाय! हाय!! तब तो मैं तुम्हें दीक्षा नहीं दे सकता।' नहीं धारण कर सकते, इसलिये अपात्र हैं। परन्तु पशु, 'परन्तु यह कुकर्म मेरे पिता ने किया है। मैंने नहीं।' पक्षी और मनुष्य (स्त्री-पुरुष, ऊँच-नीच, संकर-प्रसंकर 'कुछ भी हो । तुम्हारे दीक्षा लेने से धर्म डूब जायगा। सभी) धर्म धारण करने के लिये पात्र हैं। समझदार कुंवर ने कुछ न कहा, और दूसरी जगह प्रस्थान कर प्राणियों में वे ही अपात्र हैं जो धर्म के मार्ग में स्वयं चलना
नहीं चाहते या अपनी शक्ति लगाना नहीं चाहते।'
'क्या दुराचारी अपात्र नहीं है ?' 'वत्स ! तुम्हारा कहना ठीक है। अपराध तुम्हारे 'दुराचारी तभी तक अपात्र है जब तक वह दुराचारों पिता का ही है । परन्तु लोग इस बात को नहीं समझते।' में लीन है। दुराचार का त्याग करने वाला व्यक्ति, या
'तो उन्हें समझाना चाहिये । यदि उनका यह अज्ञान दुराचार से पैदा होने वाला व्यक्ति, अपात्र नहीं है।' है तो उसके दूर करने में ही समाज का कल्याण है। क्या ऐसे लोगों के पास धर्म के चले जाने से धर्म की शानियों को प्रज्ञानियों का अनुसरण नहीं करना चाहिये।' हंसी न होगी?' ___ 'यह ठीक है परन्तु अज्ञानियों का विरोध कौन सिर 'यदि नीच से नीच व्यक्ति के ऊपर सूर्य की किरणे पर ले।'
पड़ने पर भी सूर्य की हंसी नहीं होती तो महासूर्य के ___'तब जाने दीजिये ! मुझे तो ऐसे गुरु की जरूरत है जो समान धर्म की हँसी क्यों होगी ?' सत्य के लिये अकेले दम पर दुनिया के सामने खड़ा रह 'कुंबर मन ही मन खुश हुए । जिस रत्न की खोज में सके, अन्तरात्मा की आवाज से जो यश-अपयश का निर्णय वे प्राज तक फिर रहे थे, वह उन्हें मिल गया। माता के करता हो, जो दुनिया का पथप्रदर्शक नेता हो, उसे खुश अवसान के बाद उनने सैकड़ों साधुवेषियों की खोज की करने वाला गुलाम नहीं। मुझे वैद्य चाहिये-न कि नट।' थी। उनने वीतरागता का ढोंग करने वाले, अनेक जीव प्राचार्य ने भैप कर मुंह फेर लिया।
देखे थे। शिष्यों और भवतों का ठाठ लगाने वाले, नाम के (११)
पीछे मरने वाले, दम्भी भी उन्हें मिले थे। अज्ञानता से या 'वत्स! तुम्हारे माता-पिता कैसे भी हों, मुझे इससे यश की इच्छा से, भूखों मरने वाले या अनेक तरह के कुछ मतलब नहीं । धर्म का निवास पात्मा में है, हाड़, मांस कायक्लेश सहने वाले पशु भी उनकी नजर में पाये थे। पौर चमड़े में नहीं। फिर हाड़ मांस किस का शुद्ध होता दुराचार के पुतले घोर व्यभिचारी बगुलों को उनने लोगों है, जो उस पर विचार किया जाय ! व्यभिचार पाप है, के द्वारा पूजते देखा था। साधु-वेष से ढके हुए कई भोले-भाले