________________
किरण
साहित्य-समीक्षा
महत्त्वपूर्ण और उपयोगी प्रकाशन के लिए भारतीय ज्ञानपीठ बन्द करवा दी। मकबर पर जैन धर्म के प्रभाव की बात काशी धन्यवाद का पात्र है।
मन्य इतिहासज्ञ भी बता चुके थे, किन्तु उसका समूचा भारतीय इतिहास : एक दृष्टि
वृतांत प्रामाणिक रूप से इस गन्थ में उपस्थित किया गया लेखक-डा. ज्योतिप्रसाद जैन, प्रकाशक-भारतीय है। ऐसे ही ऐसे अनेक तथ्य इस ग्रन्थ में सञ्चित हैं। ज्ञानपीठ, काशी, लोकोवय ग्रन्थमाला : हिन्दी प्रन्यांक- इतिहास के जिज्ञासु पाठक उनका निष्पक्षभाव से सन्मान १४५, ग्रन्थमाला सम्पादक-श्री लक्ष्मीचन्द जैन, पृष्ठ करेंगे, ऐसा हमें विश्वास है । भाषा और वाक्यविन्यास की संख्या-७१४, मूल्य-पाठ रुपये।
सरलता से अध्ययन सुगम ही है। जैन पुरातत्त्व और साहित्य का भारतीय इतिहास के ग्रन्थ में दो कमियां भी हैं-पहली तो यह कि अन्त निर्माण में महत्त्वपूर्ण योग रहा है। इस बात को सभी बड़े में शब्द संकेत नहीं है, जिसके आधार पर ग्रन्थ का अभीष्ट इतिहासज्ञ स्वीकार कर चुके हैं । किन्तु अभी तक उसका स्थल सुगमता से प्राप्त कर लिया जाता । और दूसरी यह विधिवत् और क्रमिक रूप में अध्ययन नहीं हुआ था। उसके कि ग्रन्थ में लिये गए उद्धरणों के अपने मूल ग्रन्थ और दो मुख्य कारण थे-एक तो जैनों की अपने साहित्य को पष्ठ आदि का कहीं हवाला नही है। यदि दे दिया जाता गोपनीय रखने की प्रवृत्ति और दूसरे लगनशील व्यक्ति का तो अनुसन्धित्सुत्रों को पर्याप्त महायता मिलती। वैसे ग्रन्थ अभाव । ममय की गति ने 'गोपनीयता' की पादत को ढीला उत्तम हैं। उसके लोक-प्रसिद्ध होने की कामना करता हूँ। किया और समय ने ही डा. ज्योतिप्रसाद जैसे लगनशील
-डाप्रेमसागर जैन व्यक्ति को जन्म दिया । डा० साहब का समूचा जीवन
प्रमारण प्रमेय कलिका जैन इतिहास के अनुसन्धान में बीता है । यह ग्रन्थ उसका प्रतीक है । 'एक दृष्टि' की मौलिकता अमंदिग्ध है। उसमें
मारिणकचन्द्र दिगम्बर जैन-प्रन्थ मालायाः सप्त चत्वापाठक नवीनता पायेंगे और इतिहासज्ञ अपने स्थापित तथ्यों
रिशो ग्रन्थः । मूल लेखक-नरेन्द्रसेन, सम्पादक-दरबारी में परिवर्तन का विचार करेगे।
लाल जैन कोठिया, प्राक्कथन-श्री हीरावल्लभ शास्त्री, नये तथ्य आकर्षक हैं । बिम्बसार और कुणिक तथा
प्रकाशक-भारतीय ज्ञानपीठ, काशी पृ० ३६, ६०, ८,५३ । चाणक्य और चन्द्रगुप्त को प्राचीन इतिहास के सभी मूल्य १-२० । विद्यार्थी जानते होगे, किन्तु उन्हें यह विदित न होगा कि समीक्ष्य ग्रन्थ 'प्रमाण प्रमेय कलिका' का प्रथम प्रकाबिम्बसार भगवान् महावीर के मौसा थे और उनके जीवन शित संस्करण है और जैन-भण्डारों से उपलब्ध दो प्रतियों के का उत्तरार्ध जैनधर्म के प्रचार में ही खप गया था। उन्हें माधार पर सम्पादित किया गया है। प्राचीन लिपिकारों के यह भी विदित न होगा कि सम्राट् चन्द्रगुप्त २५ वर्ष स्खलनों का संशोधन सजगता से किया गया है और सर्वथा निर्वाध शासन करने के उपरान्त जैन साधू होकर दक्षिण समीचीन है। विद्वान सम्पादक ने समग्र पाठ को विषय चले गए थे। वहा जिस पर्वत पर समाधि मरणपूर्वक की दृष्टि से अवतरणों में विभक्त किया है और उसका उनका स्वर्गवास हुआ, वह आज भी चन्द्रगिरि के नाम से क्रमिक एवं मूक्ष्मतर संकेत विषय-मूची में दिया है। मूलप्रसिद्ध है। डा. ज्योतिप्रसाद ने सिद्ध किया है कि यूनानी पाठ में उद्धृत अवतरणों के स्रोत, लोकन्याय, निदर्शनसम्राट सिकन्दर ने पंजाब में फैले दिगम्बर निर्ग्रन्थ साधुनों वाक्य और विशिष्ट तथा लाक्षणिक शब्दों के महत्वपूर्ण से भेंट की थी। कुछ साधु उसके साथ यूनान गए थे। वहां संग्रह परिशिष्ट में दिए गए हैं। 'प्रमाण प्रमेय कलिका' वे जनविधि का पालन करते हुए दिवंगत हुए। ग्रन्थ में प्रमा- तुलनात्मक महत्व की कृति है प्रतः सम्पादक ने पाद टिप्पणित किया गया है कि अशोक बौद्ध नहीं, अपितु जैन था। णियों में पाठ भेद उल्लेख के अतिरिक्त अन्य दार्शनिक मध्यकाल में सम्राट अकबर पर जैनधर्म का विशेष प्रभाव परम्परामों के ग्रन्थों के तुलनीय प्रसङ्गों के पथा स्थान पड़ा और उसने अपने राज्य में ईद जैसे त्योहार पर कुर्वानी उतरण भी दिए हैं। कहीं कहीं संस्कृत-व्याख्या मूल पाठ