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सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से सम्यक्त्व और मिथ्यात्व ४. दृष्टान्त जब बिम्ब बनते हैं, उस समय उनकी रूप में होने वाली मिथ परिणति का चित्र उपस्थित किया मावेग कोटियाँ प्रौदात्य की मोर झुकी रहती हैं। अन्तरंग गया है । यह बिम्ब निम्न तथ्यों पर प्रकाश डालता है- धारणाएं, जिनका सम्बन्ध प्रस्तुतों के साथ है, अप्रस्तुत १. मिश्रण रहनेसे पृथक्करण असम्भव ।
दृष्टान्त बिम्ब द्वारा सहज में प्रयोग स्थान, परिस्थिति, रीति २. जात्यन्तर स्वाद-विचित्रानुभूति ।
एवं उद्देश्यानुकूल अभिव्यक्त होती है। अतएव गुगादि की ३. एक ही समय में दो विभिन्न प्रकार की विपरीत रसानुभूतिजन्य शक्ति कर्मप्रकृतियों की शुभाशुभ फलानुअनुभूतियों का मिश्रित रूप में रहना।
भूति को व्यक्त करती है। .. ४. व्यक्तित्व निर्माण में सहायक सिद्ध होने वाले चाक्षुष बिम्ब-चक्षु इन्द्रिय द्वारा ग्रहण की जाने वाली विचित्र एवं मिश्रित स्थायी भावों का संयोग-तृतीय प्रतिमानों की समानता से भावों के स्पष्टीकरण में चाक्षुष गुणस्थान में मिश्रित परिणति रहने से जात्यन्तर संवेग बिम्बों की योजना की जाती है। जो रूप व्यापार हमें और अनुभूतियों द्वारा मिश्रित प्रभाव ।
तनिक भी आकृष्ट नहीं करते, वे ही सौन्दर्य एवं अनेक गुडलंग्सकरामिय'-मघातिया कर्मों में प्रशस्त- मनोवैज्ञानिक मसालों के मिश्रण से प्रत्यक्ष जगत् के पदार्थों पुण्य प्रकृतियों की शुभफलदायक शक्तियों का विवेचन के सौन्दर्य में कई गुनी वृद्धि कर देते हैं। अभिप्राय यह है करते हुए गुड, खांड, मिश्री और अमृत के स्वाद का बिम्ब कि बाहिरी जगत् के जो पदार्थ हमें साधारणतः प्राकृष्ट प्रस्तुत किया गया है । गुड, खांड, मिश्री एवं अमृत जिस नहीं करते, वे ही कल्पना के माध्यम से बिम्ब का रूप प्रकार स्वाद-मधुरिमा में उत्तरोत्तर श्रेष्ट हैं, उसी प्रकार धारण कर एक विचित्र मोहिनी उत्पन्न कर देते हैं । सूक्ष्म पुण्य प्रकृतियों के मनुभाग में भी उत्तरोत्तर सुखाधिक्य एवं मानसिक सौन्दर्यानुभूति को आचार्य नेमिचन्द्र ने भी पाया जाता है। पाप प्रकृतियों के दुःखाधिक्य के विश्लेषण चाक्षुषबिम्बों द्वारा अभिव्यक्त किया है। यद्यपि इनके के लिए निम्ब, कांजीर, विष और हलाहल के स्वाद की बिम्ब साधारण पदार्थों के ही हैं, तो भी कलागत चमत्कार कटुता की हीनाधिकता का बिम्ब उपस्थित किया है। एवं सिद्धान्तों का स्पष्टीकरण समुचित रूप में हुमा है। इन बिम्बों द्वारा निम्न तथ्यों पर प्रकाश पड़ता है- पाठक देखेंगे कि एक सिद्धान्त निरूपक दार्शनिक प्राचार्य
१. अच्छी वस्तुओं के स्वाद में उत्तरोत्तर माधुर्य एवं की साहित्य के क्षेत्र में कितनी गहरी सूक्ष्म पैठ है। कटु वस्तुओं के स्वाद में उत्तरोत्तर कटुता की अनुभूति गुणरयरणभूमणक्यं'-रत्न मूल्यवान् और भस्वर होती है।
पदार्थ है। यह पत्थर का टुकड़ा होते हुए भी साधारण २. सापेक्ष अनुभूति की स्थापना । समस्त सृष्टि की वस्तुओं की अपेक्षा अपना विशिष्ट स्थान रखता है। जब सत्ता के मूल में राग तत्त्व व्याप्त है और इसके मूलतः किसी वस्तु की मूल्यगत विशिष्टता, उपादेयता और अनुपचार भेद हैं-सामान्य, तीव तीव्रतर और तीव्रतम् । गुह, लब्धता दिखलायी जाती है, तब इसका बिम्ब उपस्थित खांड, प्रादि चारों पदार्थ सामान्य, तीव्र, तीव्रतर और किया जाता है । कलाकार या शास्त्रकार के मानस में रत्न तीव्रतम इन चारों शुभरागात्मक अनुभूतियों की पभि- की प्राकृतिमात्र जड़ नहीं है और न चर्म चक्षुषों से दिखव्यंजना करते हैं। इसी प्रकार निम्ब, कांजीर, विष और लायी पड़ने वाली ही। उसके मानस में उसका ऐसा बिम्ब हालाहल अशुभराग की स्थितियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। है, जो पाठक या श्रोता के भावना-पटल पर प्रतिबिम्बित
३. मूर्तिक पदार्थों का प्रास्वादन भी मूर्तिक रूप में ही होकर उसको भावमग्न करने की पूर्ण क्षमता रखता है। होता है। गुड़, खांड़ प्रादि मूर्तिक पदार्थ हैं, ये कर्म प्रकृ- रल सम्यक्त्वादि गुणों के सम्बन्ध में सांगोपांग चित्र उपतियों की अनुभागशक्ति का मूर्तिक रूप में विश्लेषण उप- स्थित करता है। यह गुणों में प्रतीयमान अर्थ के समस्त स्थित करते हैं।
कार्य-व्यापारों की कलागत-सौन्दर्यानुभूति को उपस्थित कर १. कर्मकाण्ड गाया १८४
२. जीवकाण्ड गापा ।
गृह, खांड़ प्रादि मूत्तिक
षण उप- स्थित करता है।
पति को उपस्थित कर