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सामने आता है कि नाड़ीमण्डल की नैसर्गिक प्रवृत्तियां चलना, उठना बैठना यादि भी इतने परिष्कृत और वित क्षण है कि इनके कारण भी चित्त में कोई विकृति संभव नहीं । फलतः प्रसाधारण प्रवृत्तियों के कारण पित्त पूर्णतः निर्मल है। संसार के समस्त प्राणियों का हित साधन होता है। शरीर में इतनी शक्ति उत्पन्न हो गयी है, जिससे किसी भी प्राणी को तनिक भी कष्ट नहीं होता । फलतः पूर्ण अहिंसक होने के कारण चित्त में स्थायी निर्मलता निवास करती है।
३. यह बिम्ब अन्वीक्षावृत्ति (लॉजिकल फैकल्टी) द्वारा एक नवीन जातीय दृष्टि का उन्मेष करता है । चर्मचक्षुत्रों से हम जल की निर्मलता को देखते हैं तथा अन्तबिलास द्वारा उसके सौन्दर्य का निरीक्षण करते हैं; फलतः यह बिम्ब हमारे नेत्रों के समक्ष प्रयोजन विहीन चित्त की स्थिति को उपस्थित करता है । यतः प्रकार - प्रकारीगत विशिष्टताओं से मुक्त होने पर ही चित्त में स्थायी निर्मलता भाती है ।
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गिपश्वत्यादियाई 'घर और वस्त्रादि पदार्थों की पूर्णता अपूर्णता के बिम्ब द्वारा जीवों की पर्याप्त और अपर्याप्त अवस्था का स्वरूप व्यञ्जित किया गया है। गृहीत माहारवर्गणा को खसरस भागादिरूप परिमित करने की जीव की शक्ति के पूर्ण हो जाने को पर्याप्ति और यह पर्याप्ति जिनके पाई जाये, उनको पर्याप्त तथा जिनकी शक्ति पूर्ण नहीं हुई है, उन जीवों को अपर्याप्त कहते हैं। गृह और वस्त्र पदार्थों का बिम्ब हमारे सम्मुख एक ऐसी प्राकृति प्रस्तुत करता है, जिसमें भौतिक पदार्थों का समवाय है। यह रामनाम पूर्ण और अपूर्ण इन दोनों अवस्थाओं के चित्र खींचता है । मसूरंकुविन्दु पृथ्वी, अप्, तेज और वायु काय के जीवों की शरीराकृति को अवगत कराने के लिए उपमान रूप में मसूर, जल-बून्द, सूचिका - समूह श्रौर ध्वजा की योजना की गई है । ये उपमान बिम्ब हैं; इनके द्वारा हमें उन चारों काय के जीवों का स्वरूप स्पष्ट अवगत हो जाता है । मसूर के समान पृथ्वीकाय के जीव की प्राकृति, जल
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१. वही गाथा ११७ २. वही गाथा २००
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बिन्दु के समान जंतकाय के जीव की प्राकृति मुद्दयों के समूह के समान धनिकाय के जीव की प्राकृति और ध्वजा के समान वायुकाय के जीव की प्राकृति होती है। यहां पर ये उपमान विम्बों का कार्य करते हैं।
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कंचणमग्गियं - शुद्ध स्वर्ण के बिम्ब द्वारा सिद्धों की शुद्धता की भावाव्यक्ति की गई है। अग्नि में तपाये जाने पर स्वर्ण के बाह्य और आभ्यन्तर दोनों ही भाग शुद्ध हो जाते हैं, उसका उभय प्रकार का मल जलकर भस्म हो जाता है। इसी प्रकार शुक्लध्यानाग्नि द्वारा म्रात्मा अपने कर्ममल को भरम कर शरीर और कर्म से रहित हो सिद्ध पदवी को प्राप्त कर लेती है । काय और कर्म बन्धन से मुक्ता मारमा की स्थिति का भवबोध 'अग्निगत कंचन' के बिम्ब द्वारा किया है।
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किमिरायचक्क मल धनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान आदि लोभ के स्वरूपों को अवगत करने के लिए फिमिराग, चक्रमल, शरीरमल और हरिद्वारंग के उपमानों का प्रयोग किया है। ये उपमान लोभकषाय की शक्ति के स्पष्टीकरणार्थ विम्वरूप में प्रयुक्त हैं। क्रिमिराग आदि के वर्णों की गहराई और स्थायित्व की उत्तरोत्तर हीनता द्वारा लोभकवाय में होने वाली हिसक या रागात्मकवृत्ति का विश्लेषण किया गया है । अन तानुबन्धी लोभ की अपेक्षा प्रत्याख्यानलोभ की वृत्ति कम गहरी और स्थायी होती है, श्रग्रत्याख्यान से प्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान से संज्वलन की वृत्ति कम गहरी और स्थायी होती है । प्राचार्य ने भौतिक पदार्थों के वर्णों द्वारा आन्तरिक रहस्य का उद्घाटन किया है। इस बिम्ब से निम्न स्थितियों की जानकारी प्राप्त होती है।
१. क्रिमिराग आदि के वर्णों के समान लोभकषाय की रागात्मिका वृत्ति द्वारा श्रात्मा अनुरंजित होती है । रागवृत्ति आत्मा को भी रंग देती है, यही रागवृत्ति कर्मास्रव में कारण बनती है ।
२. चेतन अचेतन -- व्यक्त-अव्यक्त आकांक्षाओं एवं कामनाओं में लोभ अवश्य वर्तमान रहता है। पौद्गलिक
३. वही गाथा २०२ ४. वही गाथा २८६