Book Title: Anekant 1962 Book 15 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 227
________________ किरण ५ उसके सामने ठूंठ भी भूत बन जायगा। इसी तरह किसी वस्तु विशेष को अपनी भावनाओं के प्रक्षेपण से उस रूप में ग्रहण कर लेना, जो उसका वास्तविक स्वरूप नहीं है, विम्ब -विधान है। विम्ब-विधान उपमान से भिन्न है। इसका क्षेत्र भी उपमान की अपेक्षा अधिक व्यापक है। प्राचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तों को बिम्ब योजना आलोचकों का मत है कि उपमान अपने मीतर जितना अर्थ ग्रहण करता है, उससे कहीं अधिक प्रर्थं बिम्बविधान के पेट में पैठ जाता है । उपमान शब्द यह प्रकट करता है कि जहाँ तुलना हो, वहीं इसका प्रयोग उचित है और उन्हीं अलंकारों में इसका प्रयोग पाया जाता है जो, औपम्यगर्भ है, किन्तु विम्ब-विधान व्यापक है। इसका प्रयोग सभी अलंकारों में पाया जाता है । कवि या शास्त्रकार किसी विशेष प्रतिमा या विम्ब के द्वारा किसी भी मूर्ति भाव को चमत्कारी ढंग से अभिव्यक्त करता है। यही कारण है कि एक शब्द, एक वाक्य, एक सन्दर्भ और एक ग्रंथ का समस्त विषय भी बिम्ब का कार्य करता है । बिम्ब के विषय जीवन के सभी क्षेत्रों से लिये जा सकते है पर इस बात का ध्यान रखना अत्यन्त आवश्यक है कि बिम्बों के माध्यम से वस्तुनों के रूप और गुण का अनुभव तीव्र हो सके । भावों का उत्कर्ष दिखलाने, उन्हें तीव्र करने, व्यञ्जित करने, सुबोध तथा प्राञ्जल बनाने के लिए बिम्बों की आवश्यकता होती है। अमूर्त से अमूर्त भावनाएं भी विम्बों के माध्यम से साकार रूप धारण कर प्रस्फुटित हो जाती हैं । प्रस्तुत योजना और वाक्यवक्रता के कार्यों का भी सम्पादन बिम्बविधान द्वारा सम्पन्न होता है। भाषा और चिन्तन के मूल उपादान बिम्ब ही हैं। बिम्ब या प्रतिमाओं का वर्गीकरण दो प्रकार से किया जाता है । उद्भव के आधार पर बिम्ब दो प्रकार के होते है-स्मृतिजन्य और स्वरचित ज्ञानप्राप्ति के साधनों के । अनुसार भी बिम्ब दो प्रकार के माने गये हैं-ऐन्द्रिक और अतीन्द्रिय ऐन्द्रिक विग्धों के पांच भेद हैं- (१) स्पाशिक या शीतोष्ण बोषक विम्य, (२) रासनिक बिम्ब, (३) घाणिक बिम्ब, (४) चाक्षुष बिम्ब और (५) श्रावण बिम्ब । प्राचार्य नेमिचन्द्र ने गोम्मटहार में सादृश्यमूलक १५७ विम्बों का प्रयोग अधिक किया है। उपमा, उत्प्रेक्षा धौर रूपक अलंकारों में यथातथ्य और स्वच्छ बिम्बों का प्रचुर परिमाण में प्रयोग हुआ है। स्पाशिक बिम्ब इस कोटि के बिम्ब पर्याप्त मात्रा में आये हैं। इस प्रकार के बिम्बों का प्रधान कार्य स्पर्शनइन्द्रिय द्वारा बाह्य पदार्थ की प्रतिमा विम्ब से किसी विशेष भाव प्रथवा सिद्धान्त का स्पष्टीकरण करना है । यथा -- - - सम्मत रमरणपम्ययसिहरायो 'सासादन गुणस्थान का स्वरूप स्पष्ट करने के लिए एक बिम्ब उपस्थित किया है कि पर्वत से गिरकर भूमि को प्राप्त न होने की स्थिति अर्थात् मध्यवर्ती अवस्था —सासादन है । बात यह हैं कि जीव सम्यक्त्व से च्युत होकर जब तक मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं होता, तब तक मध्यवर्ती स्थिति सासादनगुण-स्थान की है । प्रतः सासादनगुणस्थान को हृदयंगम करने के लिए प्राचार्य ने 'पर्वत से च्युत और भूमि को प्रप्राप्त' इस अव्यक्त अवस्था रूप मानस प्रतिमा द्वारा अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ में से किसी भी कषाय के उदय से सम्यक्त्व की विराधना और मिथ्यात्व की अप्राप्ति की सूचना दी है। पर्वत को रत्न पर्वत कहा है, जो स्पष्टतः सम्यक्त्व का द्योतक है और पर्वत तथा भूमि की मध्य स्थिति अव्यक्त प्रतत्व श्रद्धान की अभिव्यञ्जक है बिम्ब पर्याप्त स्वच्छ है, मध्य स्थिति का सादृश्य लेकर । अव्यक्त अतत्त्वश्रद्धान को स्पष्ट किया है । पर्वत की चोटी से कोई भी व्यक्ति अपनी किसी भूल से ही गिरता हैपैर लड़खड़ाने या अन्य किसी कारण से अपने को न संभाल सकने से पतन होता है, इसी प्रकार प्रथमोपशम सम्यक्त्व या द्वितीयोपशम सम्यक्त्व के प्रन्तर्मुहूर्तकाल में से जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छः भावली शेष रहने पर धनन्तामुबन्धी कथाय का उदय भाने से सम्यक्त्व से पतन होता है। यहां मध्यवर्ती अवस्था का बिम्ब अव्यक्त प्रतत्त्व श्रद्धानरूप सासादन के स्वरूप को स्पष्ट कर रहा है । विमलयर कारण हुयवहसिहाहिं' - निर्मल ध्यानाग्नि की शिखा लपटों से । यहाँ कर्म बन्धन के कारण होने वाले १. गोम्मटसार- जीवकाण्ड गामा २० २. गोम्मटसार जीवकाण्ड गा० ५७

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