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भाचार्य नेमिचन्ना सिवान्तावती की बिम्ब योजना
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समय तक रहनेवाली होती है। इसी प्रकार स्त्रीवेद में का ही सूचक नहीं, अपितु उसके स्थायित्व का द्योतक है। कषाय परिणाम अधिक समय तक आत्मा को कलुषित पत्थररेखा जितनी स्थायी और अमिट होती है, क्रोध का करते रहते हैं।
उतना ही उग्र एवं अधिक समय तक रहना अनन्तानुबन्धी नपुंसकवेद में होने वाले कषाय परिणामों की कलुषिता रूप है। पत्थररेखा हमारे समक्ष तीन चित्र उपस्थित को प्रवा-भट्टा में पकती हुई ईंट की अग्नि के समान करती है-(१) कठोरता (२) गहनता पार (३) बताया है। ईंट की अग्नि को हवा आदि के निमित्त की स्थायित्व का । अनन्तानुबन्धी क्रोध कषाय में भी ये तीनों आवश्यकता नहीं; यह बिना किसी निमित्त के ही प्रज्ज्व- बातें वर्तमान हैं। इस कोटि का कोष कठोर होता है, गहरा लित रहती है। इसी प्रकार नपुंसकवेद को कषायोद्रेक के होता है और अधिक समय तक रहने वाला होता है। इसी लिए निमित्त की आवश्यकता नहीं। इस वेद वाले प्राणी कारण यह क्रोध सम्यक्त्व की उत्पत्ति में बाधक होता है। के परिणाम यों ही प्रतिक्षण कलुषित रहते हैं। यद्यपि पृथ्वीरेखा का बिम्ब भी तीन चित्र प्रस्तुत करता है। उक्त तीनों प्रकार की अग्नियां यहाँ उपमान हैं और इन १. अल्प काठिन्य-स्पर्शन इन्द्रिय जन्य अनुभूति से परिचित मूर्तिक उपमानों द्वारा वेदों में होने वाले कषाय अवगत होता है कि पृथ्वी रेखा में कठोरता अल्प परिमाण भावों का विश्लेषण किया है; तो भी इन तीनों को हम में रहती है। पत्थररेखा का स्पर्श कठोर होता है; पर बिम्ब मानते है । यतः ये तीनों उपमान पाठकों के समक्ष पृथ्वीरेखा का स्पर्श कुछ मृदु । भावों को परखने के लिए एक नया दृष्टिकोण उपस्थित (२) गाम्भीर्य-पृथ्वीरेखा भी गहरी हो सकती है, करते हैं । ये तीनों बिम्ब इतने स्वच्छ और गम्भीर हैं कि पर इस गहराई में कठोरता अल्प परिमाण में रहने से आधुनिक मनोविज्ञान के समान पुलिङ्ग, स्त्रीलिङ्ग और स्थायित्व नहीं रहता। गहराई तभी अपना महत्व रखती नपुंसकलिङ्ग में होने वाले परिणामोद्रेक को स्पष्ट करते है। है जब उसमें कठोरता रहे। कठोरता के अभाव में गहराई
कम्प्रवेत्तं'-कषाय के स्पष्टीकरण के लिए कर्म को शीघ्र ही समाप्त हो जाती है। खेत-क्षेत्र का बिम्ब दिया है। खेत को उपजाऊ बनाने (३) स्थायित्व के लिए काठिन्य का रहना आवश्यक के लिए जोता जाता है, उसमें खाद भी दी जाती है तथा है। पृथ्वीरेखा में अमिट होने की शक्ति नहीं है। अतः उसे चौरस किया जाता है। इसी प्रकार कषायकर्म को पृथ्वीरेखा का बिम्ब अप्रत्याख्यानावरण क्रोध की सम्यक् अधिक अनुभागशक्ति और स्थितिबन्धवाला बनाती है। अभिव्यञ्जना करने में सक्षम है। यह कषाय देशचारित्र यह एक प्रकार से हल का कार्य करती है; हल द्वारा की उत्पत्ति में रुकावट डालती है। जोतने पर ही खेत में अच्छी फसल उत्पन्न होती है, इसी धूलि रेखा का बिम्ब तीन बातें प्रकट करता है - प्रकार सुख-दुःख की भावनाओं की उत्पत्ति कर्मक्षेत्र के
१. मृदुता-पृथ्वीरेखा की अपेक्षा धूलिरेखा मृदु कर्षण से होती है । क्षेत्रबिम्ब खेत की मात्र लम्बाई-चोड़ाई होती है। का ही चित्र सामने उपस्थित नहीं करता; बल्कि खेत के
२. अधिक गहनता का प्रभाव-धूलिरेखा में अधिक उपजाऊ होने और उसे उर्वरा शक्ति युक्त बनाने या होने गहनता नहीं पाई जाती। यह रेखा अधिक गहरी नहीं हो का भी चित्र प्रस्तुत करता है।
सकती। सिलपुतविभेद'...."। अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान
३. स्थायित्व की अल्पता-धूलि रेखा में कठोरता प्रत्याख्यान और संज्वलनक्रोध की शक्ति को स्पष्ट करने के
और गहराई इन दोनों गुणों के नाममात्र रहने से स्थायित्व हेतु-पत्थररेखा पृथ्वीरेखा धूलिरेखा और जलरेखा के बिम्ब सकसी
की कमी रहती है। अतः इस कोटि का प्रत्याख्यान क्रोध प्रस्तुत किये गये हैं। पत्थररेखा का बिम्ब मात्र कठोरता
होता है । यह क्रोध भी शीघ्र ही दूर होने वाला होता है । १. गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा २८१
यह सकल चारित्र की उत्पत्ति में बाधक होता है । २. वही गाथा २८३-२८५
जलरेखा का बिम्ब भी तीन बातें उपस्थित करता है