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(३) पृष्ठ १३४ पर भगवान् को श्राहार देने का वर्णन करते हुए जो मूर्ति को मस्तक पर धरकर प्राचार्य का भाहार के लिये जाना, काल्पनिक राजा सोम और श्रेयांस का अपनी रानियों को साथ में लेकर उन्हें परगाड़ना आदि कथन किया है सो ऐसा नाटकीय ढंग तो ब्रह्मचारी जी के इस सारे ही प्रतिष्ठा पाठ में पाया जाता है किन्तु इस नाटकीय ढंग की धुन में भगवान् के हाथ में जो इशु रस की धारा डालने की बात कही है वह जयसेन प्रतिष्ठा पाठ के अनुकूल नहीं है। एक प्रतिष्ठा में प्रतिष्ठाचार्य जी ने भगवान् के ग्राहारदान की जो विधि कराई थी वह भी सुन लीजिये अनेक व्यंजनों से भरा बाल प्रतिमा जी के सामने रखकर उसमें से अनेक नरनारी बारी-बारी से आकर भोजन का ग्रास बना बना कर प्रतिमा के हाथों पर ही नहीं मुंह पर रखते जाते थे। यह हमारा पांखों देखा हाल है। धन्य है इन प्रतिष्ठाचार्यो की लीलाओं को नाटकीय ढंग की भी तो कोई हव होनी
चाहिए ।
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भगवान् के माहारदान के विषय में जयसेन प्रतिष्ठा पाठ में जैसा कुछ लिखा है उसे देखिये-तत्रोपवासं मधवा तयार्यो यज्वा शची चान्यमहे नियुक्ताः । विदष्युरुवं विधिना हि मध्यंदिने जिना चरपूजनानि ॥ ८४२॥
तदेव पंचाद्भुतवृष्टिर विवस्य पुष्पांजलिना समेता । योज्या ध्वनि तरंगणं विधाय भुजीयुरन्यानपि भोजयित्वा ।।
अनेकान्त
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द्वारा अष्टद्रव्य से पूजा करने को भी लिखा है सो यह भी प्रयुक्त है। इस प्रकार का विधान लिखने का इस प्रकरण को नाटकीय ढंग का रूप देने से हुआ प्रतीत होता है वर्ना प्रतिष्ठा ग्रंथों में तो ऐसा कुछ लिखा नहीं है। अभी तो प्रतिमा की तिलक दान विधि ही नहीं हुई, तो उसके पहले उसकी प्रष्ट द्रम्प से पूजा से की जा सकती है ? माना कि इस वक्त भगवान् मुनि अवस्था में हैं पर यहाँ साक्षात् भगवान् तो नहीं है यहाँ तो उनकी मूर्ति है। अष्टद्रव्य से पूजने के योग्य मूर्ति प्रतिष्ठाविधि में कब होती है यह तो विचार करना ही हो पढ़ेगा। जयसेन प्रतिष्ठा पाठ में भी पृष्ठ २७८ पर तिलकदान विधि के बाद “अत्राष्टकं देयं" वाक्य देकर तिलकदान के बाद ही भ्रष्टद्रव्य से पूजा करना बताया है। यहीं पर वचनिकाकार ने तिलदान को प्रतिष्ठा का मुख्य कार्य बताया है । अर्थात् तिलकदान यह प्रतिष्ठा की मुख्य क्रियाविधि है। इसके पहले मूर्ति की अष्टद्रव्य से पूजा नहीं हो सकती है। इसी तिलदान विधि में प्रत्रावतरावतर आदि आह्नानादि मंत्रों का प्रयोग कत भगवान् को मूर्ति में स्थापन करने की भावना की जाती है। पाशावर जी ने भी अपने प्रतिष्ठापाठपत्र १०५ में तिलकदान विधि के हो चुकने बाद ही "तत्काल प्रतिठितार्हत्प्रतिमां नमस्कुर्यात् " ऐसा लिखा है । अर्थात् उसी समय प्रतिष्ठित हुई भर्हतप्रतिमा को नमस्कार करे ।
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अर्थ - अयं भगवान् के उस दीक्षादिन में इन्द्र धार्य-यजमान इन्द्राणी और अन्य पुजारी उपवास रक्वें । अगले दिन के मध्या में विधि के साथ भगवान् के धागे नैवेद्य भेंट करें और तब ही बिंब के आगे पुष्पांजलि के साथ पंचाश्चर्यो की वर्षा करे और अनेक बाजे बजवा कर इन्द्रादि आप पारण करें तथा अन्य साधर्मी जनों को भी जिमायें।
यहां भगवान् का प्रहार करने का भाव दिखाने को प्रतिमा के आगे नैवेद्य भेंट करना मात्र लिखा है। अतः प्रतिमा के हाथ में आहार धरना योग्य नहीं है । ब्रहाचारी जी ने भगवान् के उक्त आहारदान के प्रकरण में प्रतिमा जी को पड़गाहकर उनकी दातार के
fre प्रतिष्ठा में तिलकदान विधि कितनी मुख्य और महत्व की है इसके लिए ग्राशावर जी अपने प्रतिष्ठापाठ अध्याय ४ में लिखते हैं कि
द्रव्यैः स्वैः सुनयाजितैजिनपते बिबं स्थिरं वा चलं । ये निर्माप्य यथागमं सुदृषदाचारमात्मनान्येन वा ॥ लग्ने बल्गुनि संभवंति तिलकं पश्यति भक्त्या च ये । ने सर्वोऽय महोदयांतमुदवं भव्याः लभतेऽद्भुतम् ||२||
अर्थ-यायोपार्जित स्वद्रव्य से जो शास्त्रानुसार उत्तम पापाण आदि की स्थिर व चल जिनप्रतिमा को बनाकर अपने या प्रतिष्ठाचार्य के द्वारा उत्तम लग्न में तिलकविधि करते हैं और उस विधि को जो भक्ति से देखते है वे सत्र ही भव्य जीव महोदयांत कहिये मोक्ष है पन्त में जिसके ऐसे अद्भुत उदय को - अहमिंद्रादि पद को प्राप्त होते है ।