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बात
महत्वपूर्ण था द्रमिल संघ, जो सम्भवतः वही था जो तिरुपट्टिकुनरम् के निवासियों की स्मृति में केवल मदुरा में स्थापित हुमा था। उसके गणों में नन्दीगण नाम अकलंक से सम्बन्धित परम्परा ताजी है। इससे पहिले के का एक गण दक्षिण भारतीय जैनधर्म के इतिहास में प्रसिद्ध मुनि तथा बाद के तपस्वी प्रायः विस्मृत हो गए हैं। यह था।
बात सहज ही समझने में प्रा जाती है, क्योंकि अकलंक यह अद्भुत बात नहीं है कि तिरुपट्टिकुनरम् में हमें से सम्बन्धित परम्परा, काञ्ची से लगभग १२ मील गुरुमों एवं शिष्यों की व्यवस्थित धर्मसत्ता मिलती है क्योंकि दूर एक जैन ग्राम तिरुप्पनमूर में बनी हुई है जहाँ के सं० ४७, ५४, १०५, १०८ और १४५ के श्रवण बेल्गोल एक मन्दिर में पत्थर के एक विशाल प्रोखल के बारे शिलालेखों से पता चलता है कि इस धर्मसत्ता की पद्धति में मन्दिर के पुजारी बताते हैं कि पराजित विधर्मियों ईसा के ३०० वर्ष पूर्व चन्द्रगुप्त मौर्य के काल से प्रारम्भ को गिक्षा देने के लिए इसका प्रयोग किया जाता हुई। श्रवणबेल्गोल में, जहां पहले तीर्थकर के पुत्र बाहु- था। इस प्रोखल के सामने मन्दिर के प्रांगन की भीत वली की विशाल मूर्ति है, धर्मदूतों तथा अन्य गुरुओं एवं पर एक नक्काशी है जिसमें एक जैन मुनि को उपदेश शिक्षकों की परम्परा से सम्बन्धित प्रचुर सूचना का होना देने की मुद्रा में दिखाया गया है, इससे उस मुनि का स्वाभाविक ही था। श्रवणबेल्गोल के शिलालेखों के अनु- प्रचार कार्य प्रदर्शित होता है जिसने चारों ओर लोगों को सार प्रथम गुरु या यतीन्द्र कुन्दकुन्द प्राचार्य थे; तत्पश्चात् यह बताया कि जैनधर्म अन्य सभी धर्मों से उच्च था, तत्त्वार्थ सूत्र के संग्रह कर्ता उमास्वामी, गुघ्रपिच्छ और जैन होने के फलस्वरूप गुणों में बहुत वृद्धि होगी और यदि उनके शिष्य बलाकपिच्छ हुए। उनके पश्चात् ख्यातनामा उनके उपदेश की अवहेलना करके कोई विधर्मी ही बना समन्तभद्र हुए जिनका नाम दिगम्बर जैनधर्म के इतिहास रहेगा तो प्रोखल उसकी बुद्धि में अवश्य परिवर्तन कर देगा। में स्वर्णाक्षरों में अंकित है । परम्परा के अनुसार उनका प्रकलंक के पश्चात् ११६६ ई. तक तिरुपरुटिकुनरम् काल १३८ ई० है।
__ में या उसके आस-पास जो मुनि हुए, उनके सम्बन्ध में उनके दक्षिण भारतीय जैनधर्म तथा संस्कृत साहित्य पर नामों के अतिरिक्त कुछ भी ज्ञात नहीं है। सौभाग्य से लिखने वाले सभी विद्वान् इस बात पर एकमत हैं कि मन्दिर तथा अरुणागिरि के शिलालेख कुछ अन्य मुनियों पर दक्षिण भारत में समन्तभद्र का उद्भव केवल दिगम्बर जैन प्रकाश डालते हैं। उदाहरणार्थ शिलालेख सं० ३ तथा धर्म के वृत्त में ही एक नवयुग का द्योतक नही है वरन् २२' चन्द्रकीति नामक एक गुरु की चर्चा करते है जो संस्कृत साहित्य के इतिहास में भी है। समन्तभद्र के पश्चात् तिरुपरुट्टिकुनरम् में थे और जिनका शव अरुणागिरि पर कई मुनि हुए, जिन्होंने प्रचार का कार्य जारी रखा और गाड़ा गया है और वहाँ उस पर एक समाधि बना दी गई जैन सम्प्रदाय को सरल श्रेणियों में संगठित किया तथा है। ११६६ ई. वाले पहिले शिलालेख में अम्बिग्राम में देश के साहित्य की अभिवृद्धि की । उनमें ये मुख्य थे : मन्दिर को कुलोत्तुङ्ग तृतीय द्वारा बीस वेलिस भूमि के दान सिंहनन्दि, जिनके बारे में परम्परा है कि उन्होंने गंगवाड़ी का वर्णन है; दानकर्ता को प्राप्त कर्ताओं ने स्पष्ट बता के राज्य की स्थापना की; पूज्यपाद जो जैनेन्द्र व्याकरण दिया था कि तिरुपरुट्टिकुनरम् का मन्दिर उसके संरक्षण के लेखक थे और प्रकलक, जो काञ्ची से दूसरों की का अधिकारी था; क्योंकि उसमें उनके गुरु चन्द्रकीत्ति रहते अपेक्षा अधिक सम्बन्धित हैं। क्योंकि उनके बारे में कहा थे। राजा ने न केवल मन्दिर को बीस वेलिस भूमि ही जाता है कि उन्होंने ७८८ ई. के लगभग काञ्ची में राजा दी, वरन् उनकी विद्वत्ता तथा कार्य की सराहना के रूप में साहसतुङ्ग हिमशीतल के दरबार में बौद्धों को विवाद में चन्द्रकीत्ति को 'कोटेपुर के प्राचार्य' की उपाधि भी दी। असत्य सिद्ध कर दिया, राजा को जैन बना लिया तथा अरुणागिरि पर प्राप्त शिलालेख सं० २२ में उन्हीं चन्द्रकीति उसकी सहायता से बौद्धों को काञ्ची तथा दक्षिण भारत
१.टी. एन्. रामचन्द्रन्, "तिरुपरुट्टिकुनरम् और उसके से लदा के लिए निकलवा दिया।
मन्दिर" पृष्ठ ५०, ६१ ।