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वर्ष १५ नहीं सकता, यदि उसका ज्ञानी पात्मा मिथ्यात्व से भावृत कुलित बना डालता है । सुगुरु के वचन केवल प्राकहै।' बनारसी दास का कथन है, "सहज मोह जब उपसमै. षेक ही होते तो बनावट की सम्भावना भी की जा सकती रुचे सुगुरु उपदेश । तब विभाव भव-थिति घट जग ज्ञान-गुण ।
थी, किन्तु 'शक्तिशाली' ने 'वचन' के पीछे छिपी ठोस
भूमिका को स्पष्ट कर दिया है। वचन तभी शक्तिशाली लेश ॥"
हो सकते हैं जबकि वक्ता ने अपने जीवन को तदनुरूप भारतीय धरती सद्गुरुषों की महिमा से सदैव महकती ढाल लिया हो। तात्पर्य यह है कि जिनदत्तसूरि ने कोरे उपरही। उसका प्राचीन-साहित्य, पुरातत्त्व और इतिहास देष्टा को 'गुरु' संज्ञा नहीं दी। मुनि महचन्द ने निरञ्जन इसका साक्षी है। किन्तु साथ ही यह भी सत्य है कि शनैः को प्राप्त कराने की सामर्थ्य गुरु में स्वीकार की, किन्तु शनैः वह महिमा निःशेष प्राय हो गई। कुगुरु बढ़ते गये उसी गुरु में जो निम्रन्थ हो, जिसने प्रात्म और अनात्म की और साथ ही साथ अपयश भी। सद्गुरु के साथ कुगुरुत्रों गांठ को खोल दिया हो। महात्मा मानन्द तिलक ने जीव की कभी कमी नहीं थी, किन्तु उस समय के संत दोनों के को सावधान करते हुए कहा-कुगुरुपों की पूजा कर-करके अन्तर को स्पष्ट घोषित करते रहे, जिससे जन-साधारण अपना सिर क्यों धुनते हो, उस गुरु की पाराधना करो जो को उनकी पहचान बनी रहती थी। प्राचार्य कुन्दकुन्द ने सच्चा तत्त्व दिखलाता है। कबीर ने कुगुरु की अन्धे से कुगुरु से सुगुरु को पृथक करते हुए लिखा कि जिसने अपनी उपमा दी है और शिष्य तो ज्ञान-हीन होने से अन्धा होता शुद्ध, निरञ्जन और अविकार प्रात्मा को पा लिया वह ही ही है, अन्धा अन्धे को जब ठेलता है तो दोनों ही कुयें में सच्चा गुरु है । वह ही भयंकर कानन रूप इस संसार में जा गिरते हैं । कबीर ने कहा सतगुरु पूरा होता है, पूरे का पथ-भ्रष्ट मानवों को प्रकाश प्रदान करता है। उन्हें ही तात्पर्य है सब प्रकार से समर्थ, उससे जब शिष्य का परिऐसा करने का अधिकार है अन्य को नहीं। श्री योगीन्द्र ने ४. दुद्ध होइ गो-यक्किहि धवलउ, मन और इन्द्रियों से छुटकारा पाने वाले को सद्गुरु कहा
पर पेजंतइ अंतर बहलउ । है । जिसने वह छुटकारा प्राप्त नहीं किया और जो केवल एक्कु सरीरि सुक्ख संपाडइ, वेश-भूषा के प्राधार पर गुरु का पद सुशोभित करता रहा, अवरु पियउ पुणू मंसु वि साडइ ॥१०॥ वह अवश्य ही कुगुरु था। उससे सावधान रहने की बात कुगुरु सुगुरु सम दीसहि बाहिरि योगीन्द्र ने लिखी है। श्री जिनदत्तसूरि ने 'काल स्वरूप परि जो कुगुरु सु अंतरु बाहिरि । कुलक' में गुरु के दो भेद किये हैं-सुगुरु और कुगुरु । जो तसु अंतरु करइ वियक्खणु उन्होंने लिखा है कि सुगुरु वह है जो आकर्षक और शक्ति- सो परमप्पउ लहइ सुलक्खणु ॥११॥ शाली वचनों से सोते हुए भी मानव को जगा देता है ।
कालस्वरूपकुलक, अपभ्रंश काव्यत्रयी, ओरिइसके विपरीत कुगुरु अपने विषमय निर्देशन से उन्हें भ्रमा
यन्टल इंस्टिट्यूट, बड़ौदा, सन् १९२७ ई०,
५. दय धम्मु वि निग्गंथु गुरु, संतुणिरंजणु देउ॥ ६. देखिए परमार्थजकड़ी सग्रह, हिन्दी ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई, प्रथम पद्य ।
पाहुड दोहा, हस्तलिखित प्रति, २३८ वाँ दोहा ।
६. कुगुरुह पूजि म सिर धुणह तीरथ काई भमेह । ७. बनारसीदास, अध्यात्म-बत्तीसी, २७ वां पद्य, बनारसी
देउ सचेयणु संघ गुरु पाणंदा जो दरिसायहि भेउ ।। विलास, जयपुर, पृ० १४६ ।
'पाणंदा' की हस्तलिखित प्रति, ३७ वाँ पद्य । १. देखिए मोक्षपाहुड, १०४ वीं गाथा ।
७. जाका गुरु भी अंधला, चेला खड़ा निरंध । २. पंचगुरुभक्ति, चौथा पद्य, दशभक्त्यादि संग्रह,
अंधै अंधा ठेलिया, दोन्यूं कूप पड़त ॥१५॥ ३. देखिए, योगसार, पद्य ५३-५४, पृ० ३८३ ।
गुरुदेव की अंग, , कबीर-साखी-सुधा, पृष्ठ ७ ।