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काष्ठासंघ के लालबागड़ गण गुर्वावली
जिनसेन, वामवसेन, रामसेन, माधवसेन, धर्मसेन, विजयसेन के नियुक्तिकार भद्रबाहु का समय विक्रम की छठी शताब्दी जयसेन, सिद्धसेन, संभवसेनमूरि, केशवसेन, चारित्रसेन, है और उन्हें प्रसिद्ध ज्योतिषी वराहमिहर का भाई बतमहेन्द्रसेन, अनन्तकीति, जयसेन, पद्मसेन, धर्मकीर्ति, मलय लाया जाता है। कीर्ति, नरेन्द्रकीति और प्रतापकीति ।
घरसेन-यह सौराष्ट्र देश के गिरिनगर (वर्तमान ___ इन सब प्राचार्यो में से जिनका परिचय ज्ञात हो सका
जूनागढ़) में स्थित चन्द्रगुहा के निवासी थे। और अग्राहै उसे यहाँ देने का उपक्रम किया जाता है
यणी पूर्व के पंचम वस्तु गत चतुर्थ महाकर्मप्रकृतिप्राभूत के अहंबलो-यह अङ्ग-पूर्वो के पाठी आरातीय प्राचार्यों
ज्ञाता थे, वे उस समय के साधुओं में बहुश्रुत विद्वान् तथा के बाद हुए हैं । ये पूर्वदेश में स्थित पुण्ड्रवर्धनपुर के निवासी अष्टांग महानिमित्त के ज्ञाता थे। उन्होंने प्रवचन-वात्सल्य एक अग के पाठी विद्वान, अष्टांग महानिमित्तज्ञ, मंघ. एवं श्रुत-विच्छेद के भय से एक पत्र वेण्यातट नगर के मुनिनायक और शिप्यों का निग्रह-अनुग्रह करने में समर्थ सम्मेलन में दक्षिणापथ के प्राचार्यों के पास भेजा और पत्र आचार्य थे।' इनके समय तक मूल दिगम्बर परम्परा मे में देश कुल और जाति से विशुद्ध, शब्द अर्थ के ग्रहणप्राय मंघ-भेद प्रकट रूपमें नहीं हुआ था; किन्तु वह अव्यक्त धारण में समर्थ, विनयी दो विद्वान साधुओं को भेजने की रूप में प्रस्फुटित हो रहा था. उस समय आन्ध्रदेश वेण्या प्रेरणा की। उन्होंने पत्र पढ़कर दो योग्य साधनों को उनके नदी के किनारे बसे हुए वेण्यानगर में पंचवर्षीय युग प्रति- पास भेजा। उन विद्वानों के आने पर प्राचार्य धरसेन ने क्रमण के समय एक बड़ा यति सम्मेलन हुआ था जिसमें उनकी परीक्षा कर 'महाकर्म प्रकृति प्राभूत' नाम के ग्रंथ सौ योजन तक के मुनिगण ससंघ सम्मिलित हुए थे । उसमे को पढ़ाकर उन्हें चातुर्मास से पूर्व ही विदा कर दिया और प्राचार्य अहंदबली ने समागत साधुओं की भावनाओं से स्वयं ने संन्यास विधि से प्रात्म-साधना करते हुए भौतिक पक्षपात एव याग्रह की नीति जानकर 'नन्दि' 'वीर' 'अप- शरीर का परित्याग किया। राजित' 'देव' पंचस्तूप, सेन, भद्र, गुणधर, गुप्त, सिंह, चन्द्र आदि नामों में भिन्न-भिन्न संघ स्थापित किये। जिससे
आन्ध्रदेशीय 'वेणातटपुर' एक इतिहासप्रसिद्ध नगर उनमें एकता तथा अपनत्व की भावना, धर्मवात्मल्य और
रहा जो वेणा नदी के किनारे बसा हुआ था, इसीसे प्रभावना की अभिवृद्धि बनी रहे।
वह वेणातटपुर नाम से उल्लेखित किया जाता रहा । प्राकृतपट्टावली के अनुसार इनका समय वीर नि इसका उल्लेख धवलाटीका, हरिषेण-कथाकोष और इन्द्रसं० ५.६५ (वि० सं० ६५) है। और पट्टकाल २८ वर्ष
३. सोरट्ठ-विसय-गिरिणयर-पट्टण-चंदगुहा-ठिएण अरुंगबतलाया है।
महाणिमित्तपारएण गंथ-वोच्छेदो होहदि ति जाद-भएण भद्रबाह (द्वितीय)-प्राकृत-पट्टावली में अहबली के पवयणवच्छलेण दक्षिणावहाइरियाण महिमाए मिलियाण बाद मा यनन्दि का नाम दिया है। किन्तु इस गुर्वावली में
लेहो पेसिदो। लेहट्ठिय-धरसेणवयणमवधारिय तेहि वि भद्रबाहु का नाम दिया है, जो दिगम्बर मम्प्रदाय में द्वितीय
पाइरिएहि वे साहू गहणधारण-समत्था धवलाऽमल-बहु भद्रबाहु के नाम से प्रसिद्ध हैं इनका समय विक्रम की
क्रम को विहविणयविहूसियंगा सील-मालाहरा गुरुपेसणासण-तित्ता पहली शताब्दी भाना जाता है जबकि श्वेताम्बर सम्प्रदाय देस कल-जाड-सदा सयल-कला-पारया तिक्खत्तावच्छियाह१. सर्वांगपूर्वदेशकदेशवित्पूर्वदेशमध्यगने ।
रिया अंधविसय-वेण्णायडादो पेसिदा।' श्रीपुण्ड्रवर्धनपुरे मुनिरजनि ततोऽर्हद्बल्याख्य ॥८॥
(धवला पु० १ पृ०६७) स च तत्प्रसारणाधारणाविशुद्धातिसस्क्रियोद्युक्तः। (क) इन्द्रनन्दि श्रुतावतार १०३ से १०६ तक के पद्य । अष्टांगनिमित्तज्ञः संघानुग्रहनिग्रहसमर्थः ॥८६॥
(ख) अन्ध्रदेशकदेशस्थकर्मराष्ट्रजनान्तके । देखो--इन्द्रनन्दिश्रुतावतार ८७ से १११ के पद्य
वेण्यातटपुरं रम्यं विद्यते जनसंकुलम् ।। १. धवला पुस्तक १ प्रस्तावना पृ० २६ ।
हरिषेणकथा० ४६, पृ० ६७