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राह पा जाते हैं। कारण अनन्तानन्त को एक में, प्रखण्ड ईश्वर का निर्णय करते हैं, उन्हें भाप क्या कहेंगे आस्तिक को खण्ड में, मूर्त और व्यक्त देख पाते हैं।
या नास्तिक ? जैसे-जैसे उस व्यक्त, मूर्त और सगुण से एकात्मता पाने उपासना में स्वसेवन की जगह स्वार्पण की वृत्ति हो की कोशिश होगी, वैसे ही वैसे व्यक्त अव्यक्त मूर्त अमूर्त तो प्रास्तिक । लेकिन अधिकांश ऐसा हो नहीं पाता। सिर और सगुण,निर्गुण बनता जायेगा। साधना साधक को आकार नहीं झुकता । प्रार्थना नहीं होती, भक्ति नहीं फूटती। इस का सहारा देकर फिर निराकार में उठाती ही जायेगी। नमन से भावनामों को जो एक सहजता, एक आर्द्रता प्राप्त इस प्रकार साधना-शील आस्तिक अनायास वैज्ञानिक होता होती है, हृदय को जो संस्कारिता प्राप्त होती हैं, जाता है । पूजा-प्रार्थना से आगे अपने प्रत्येक आचरण में निरे बौद्धिक अनुसन्धान में व्यक्ति को उससे वंचित रह वह जो परमेश्वर का दर्शन और अवधारण चाहता है, तो जाना पड़ता है। यों कहिये कि उस उपासना से दिमाग को जान पड़ता है कि उसके दर्शन-ज्ञान में अनायास सत्य का खुराक मिलती है। मस्तिष्क पुष्ट-प्रखर होता है, दिल स्वरूप उत्तरोत्तर व्याप्ति में उद्घाटित और आविष्कृत होता सूखा रह जाता है, अर्थात् मूल 'अहं' को संस्कार नहीं जाता है । सत्य की उस भांति भारती नहीं उतारी जा मिलता । व्यक्तित्व को दाक्षिण्य नही प्राप्त होता है । प्रेम सकती जैसे मूर्ति की उतारी जाती है। सत्य अमूर्त रहता मुरझाता है और ज्ञान-विज्ञान का सहारा लेकर भीतर ही है, इसलिए मंदिर में मूर्ति-पूजा से जो सहज सन्तोष सम्भव भीतर अहं और कस जाता है। मस्तिष्क की तीक्ष्णता के है, वह सत्य-पूजा में अनुपलब्ध रह जाता है। यहाँ गहरी साथ तब व्यक्तित्व को धार मिलती है और सामाजिक तितिक्षा की आवश्यकता होती है। कारण, अगर मन्दिर सम्बन्धों में स्पर्धा अधिक काम करने लग जाती है। उन्नति या मूर्तिकलाका ईश्वर उपस्थिति से उठ जाता है, सारे बढ़ती है, संस्कृति घटती है। आज की मानव सभ्यता का विश्व में फैल जाता है। तब उसको पाना व पकड़ना मुश्किल दृश्य कुछ यही है। विज्ञान के जोर से हम ग्रहों, उपग्रहों होता है । उसकी माराधना भी मुश्किल होती है। यह के पास पहुंच गए हो सकते हैं, पर पड़ोसी से दूर हो गये ध्यानियों-ज्ञानियों का काम है । गृहस्थ उस राह दिशा को हैं। विज्ञान के विस्तार ने पड़ोसी को उड़ा दिया है, उसकी भी भूल जा सकता है। इतना कि श्रद्धा उससे खो जाए और आवश्यकता को जैसे खत्म कर दिया है। परिणाम क्या मार्ग तक उसकी दृष्टि से लुप्त हो जाए ।
है ? परिणाम यह है कि मानसिक रोग और विकार बढ़ती मुझे लगता है कि आज यही हो रहा है । सगुण रूप पर हैं। एक सूनापन और अकेलापन सभ्य, व्यक्ति को घेरे में हम उसे मान्य कर नहीं पाते । इस तरह अभ्यंतर रहने लगा है, जिससे छूटने के लिए वह नशे रोमांच और की वेदी पर से जब कि ईश्वर खंडित होता है तब सत्य अपराध ( Crime ) में शरण लेता है। सभ्यता ने उसकी जगह प्रतिष्ठित नहीं हो पाता । कारण, सत्य के तीखा नशा देने के नाना आविष्कार किये हैं। रोज-रोज प्रति सर्वस्वार्पण का भाव पाना अत्यन्त दुःसाध्य है । इसी नई विधियां सामने आती हैं। मानों सभ्य आदमी अपने से एक प्रकार की नास्तिकता फैली दीखती है और बौद्धि- को जैसे भी हो कुछ देर के लिए भुला डालना चाहता है । कता जैसे बौखलाई हुई है।
उधर पैसे की दुनिया है, जिससे हर क्षण वह अपने को इसलिए संस्था तक के रूप में धर्म को मैं अनुचित नहीं याद रखने को मजबूर है, होश जरा भी खो नहीं सकता। मानता । विशुद्ध अथवा सघन होकर संस्था, संगठन, सम्प्र- तो फिर दूसरी तरफ उसे क्षण चाहिए जब वह अपने को दाय से धर्म अनायास उत्तीर्ण होता है । व्यवहार में उसके खो डाले, होश से बेहोश हो जाए। अपने को एकदम छोड़ संस्थागत रूप को बाहर से तोड़ने की आवश्यकता नही है। दे और कहीं तनिक संभाले न रखे। यह जो पादमी तरेड़ वह स्पर्धा अहंजन्य और प्रतिक्रियात्मक है।
खाकर दो बन गया है, दिमाग से तेज, दिल से सूना, ऊपर प्रश्न-विद्वान, यन्त्र अथवा ज्ञान को ही जो अन्तिम से मर्यादित, भीतर से निरंकुश, व्यवहार से सभ्य, आकांक्षा मानकर चलते हैं, उसी की उपासना में दत्तचित्त रहते और से जंगली-यह माज के उत्कर्ष का विद्रूप क्या इसी वजह