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बहिन को लाना तो ठीक नहीं हो सकता। जीजा का दिन उसने कुंवर से कहास्वभाव भी बहुत स्खा है इसलिए वहाँ जाने को जी भी 'कुंवर ! मेरे लिये क्यों इतना कष्ट उठाते हो?' नहीं चाहता। अगर गया भी तो वे बहिन को इस झोंपड़ी कुंवर ने हँसते-हंसते कहा-'माँ ! इसमें कौनसा कष्ट में कभी न भेजेंगे। उनका इसमें अपमान है। चौथी बात है? दिनचर्या बदल देने में भी क्या कुछ कष्ट है ?' फिर यह है कि किसी भी बड़े मादमी से नातेदारी लगाना मुझे जरा विचार कर कुछ हंसते हुए कहा-'माँ ! अगर बिलकुल पसंद नहीं है। अब तुम्हीं बतायो मां, मैं किसे तुम्हारा थोड़ा-बहुत ऋण चुकाऊँ तो तुम्हें क्या बुरा लगता बुला हूँ?
'बेटा ! तू अपना विवाह क्यों नहीं कर लेता?' 'कैसा ऋण?'
कुंवर हंसे ! परन्तु हंसी में न तो कोई उल्हास था, 'वाह ! क्या यह भी कोई पूछने की बात है ? पुत्र न शोक ! केवल उपेक्षा थी। कुंवर ने कहा
के ऊपर माता का कितना ऋण है, यह तो सभी जानते हैं। ___ 'मां ! आजकल इतने बच्चे पैदा होते हैं, कि उन्हें लेकिन तुम तो ऐसी मा हो जिसने पुत्र के लिये सर्वस्व पालने वाले और पाल-पोसकर सच्चा मनुष्य बना देने वाले खोया। राजपद को लात मारकर कृषक जीवन व्यतीत नहीं मिलते। इसलिए अब और बच्चे पैदा करने की क्या किया । मैं तुम्हारा ऋण तो क्या, उसका व्याज भी नहीं जरूरत है ? रही सांसारिक सुख की बात, सो जब तक चुका सकता हूँ।' मुझ से इंद्रिय-दमन हो सकता है तब तक मैं विवाह करने कवर ! माता के हृदय की ये स्वाभाविक वृत्तियाँ की कोई जरूरत नहीं समझता। माँ, इस विषय में तुम हैं। माताएँ साहुकारी नहीं किया करतीं।' से माफी मांगता हूँ।'
कुंवर लज्जित हो गये। उनने सोचा-मैं जो कुछ रानी ने हंसते हुए कहा-हर बात में तुम तर्क ही
करता हूँ ऋण या व्याज चुकाने के लिये । परन्तु माता के चलाया करते हो । मच्छी बात है । जिस तरह तुम सुखी
उपकार में ब्याज या ऋण का हिसाब नहीं है । वह उसकी रहो मुझे उसी में सुख है।
स्वाभाविक वृत्ति है । कहाँ माँ और कहाँ मैं ? कुंवर के हृदय में कोई स्थायी चिन्ता न बैठ जाय इसलिए रानी ने हंसते-हँसते ये बातें कही थीं । परन्तु वास्तव में उसका मुंह ही हंसा था, हृदय नहीं हँसा था।
सन्ध्या का समय था। रसोई बन चुकी थी, परन्तु दूसरे दिन से कुंवर ने अपनी दिनचर्या में परिवर्तन किसी कारण से कुंवर अभी तक नहीं पाये थे। रानी की कर डाला। वे सबेरे से उठकर काम पर तथा लोगों की चिन्ता बढ़ रही थी। यद्यपि रानी जानती थी कि कुंवर खबर लेने चले जाते थे और ग्यारह बजे लौटकर भोजन किसी दुःखी के काम मे ही लगे होंगे परन्तु वह माता थी करते थे। रानौ इस समय स्वाध्याय, ध्यान और रोटी- वह निश्चिन्त नहीं रह सकती थी। सूर्य अस्त हो गया, पानी करती थी। भोजन के बाद दोनों ही बैठकर कुछ बादलों की ललाई भी मिट गई, परन्तु कुंवर न पाये । धर्म-चर्चा करते थे। कुंवर इधर-उधर के समाचार भी हलका-सा अन्धकार चारों ओर फैल गया। इसी समय थोड़ी सुनाते थे। दो-तीन बजे के बाद रानी फिर काम में लग दूर पर एक आतध्वनि सुनाई दी। रानी चौंक उठी। जाती थी। इस समय कुंवर फिर काम कर पाते थे। इसका उसने देखा कि थोड़ी दूर पर एक लकड़हारिन चिल्ला रही फल यह हुमा था कि रानी को फालतू समय में अकेला न है। लकड़ी का गट्ठा जमीन पर पड़ा है, उसका पाठ-नव बैठना पड़ता था।
वर्ष का बालक उसके पैरों से लिपट गया है और थोड़ी ___रानी को इससे सुविधा तो हुई परन्तु हृदय की अशांति दूर पर एक चीता उनकी तरफ घूर रहा है। रानी को बढ़ गई। मेरे लिये ही कुंवर को इतनी तकलीफ उठानी समझने में देर न लगी। परन्तु हाय ! कुंवर इस समय पड़ती है, इस विचार से उसका हृदय धिक्कारने लगा। एक घर पर नहीं थे।