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१७॥
चबूतरा था जो पत्थरों से सटा था। दिन में यह बैठने के हलका बोझ डालकर शरीर निर्वाह कर लेना चाहता है। काम पाता था और रात्रि में शय्या बन जाता था। थोड़े अथवा जिस मनुष्य ने विशेष स्वार्थ त्याग करके युवावस्था से कपड़े, एक तलवार, दो तीन ताल-पत्र की पुस्तकों के के प्रारम्भ में ही काफी समाज-सेवा कर ली है; अथवा सिवाय इस कमरे में और कुछ न था। तीसरा कमरा भी जिस मनुष्य ने ज्ञान पोर चरित्र में प्रसाधारणता प्राप्त कर इसी तरह का था। इसमें एक धनुष और एक तूणीर ली है। और उसके बल पर जो अपनी प्रात्मोन्नति के साथ बाणों से भरा हुमा टॅगा था । ये तीनों कमरे एक ही लाइन समाजोन्नति का कुछ ठोस काम करता रह सकता है। में थे इसलिए दूसरा कमरा बीच में आ जाता था। इन अगर कोई मनुष्य इन तीन श्रेणियों में से किसी श्रेणी में कमरों के द्वार के पागे एक दालान था, जिसमें तीनों दर- नहीं आता तो समाज पर बोझ डाल कर उसका साधु वाजों के बीच में दीवाल में लगे हुये दो चबूतरे बने हुए थे, बनना अन्याय है । कुंवर ने सोचा-मैं अभी किसी भी जो बैठने के काम माते थे।
श्रेणी में नहीं पाता । इसलिए दूसरी और तीसरी श्रेणी की घर से निकल कर कई मास तक घूमकर कुंवरने अपने योग्यता प्राप्त करने के लिए वे प्रयत्न करने लगे थे। इन रहने के लिए यही स्थान चुना था। अपनी माता के साथ भाठ वर्षों के भीतर कुंवर ने अच्छी समाज-सेवा की थी। रहते-रहते उन्हें यहाँ पाठ वर्ष हो गये थे। आस-पास के माता की सेवा करके गुरुयों का ऋण भी चुकाया था, ग्रामों के कृषक इन्हें बड़ी श्रद्धा के साथ देखते थे। कुंवर शास्त्र-ज्ञान और अनुभव के बल पर पर्याप्त ज्ञान प्राप्त ने भी यहां पर खेती करना शुरू कर दिया था सबेरे किया था और साधु बनने के योग्य संयम का अभ्यास भी स्नानादि से निवृत्त होकर वे अपने खेत में जाते, वहाँ से कर लिया था। पास-पास के ग्रामों में चक्कर लगाते। किसी को सहायता
[६] की जरूरत होती तो सहायता करते। सबसे क्षेम-कुशल के रानी का जीवन निरुद्देश था । अगर उसका कुछ उद्देश समाचार पूछकर लौट आते । भोजन करने के बाद माता था भी, तो इतना ही कि अपने पुत्र के साथ प्रेम से रहना, के साथ बैठकर कुछ वार्तालाप या तत्त्वचर्चा करते, फिर यहाँ जीवन उसे इतना अच्छा मालूम होता था कि वह अपने खेत पर चले जाते । शाम को लौटकर भोजन करते । इस राज्य-वैभव को बिलकुल भूल गई थी। उसे रानी कहलाने समय दो-चार कृषक आकर उनसे गप-शप करते । प्रास- की अपेक्षा एक कृषक माता कहलाना अच्छा मालूम होता पास ग्रामों में कही कोई छोटा-मोटा झगड़ा होता तो उसे था । वह नहीं चाहती थी कि उसका बेटा राजा बनें, परन्तु ये ही निपटा देते । आज तक किसी ने इनका फैसला यह जरूर चाहती थी कि वह विवाह करले । परन्तु इस अमान्य नहीं किया। सब इनके वचनों को प्रमाण मानते विषय का प्रस्ताव वह पुत्र के सामने कभी रख न सकी। थे। नौ-दस बजे रात तक यही चहल-पहल रहती। रानी अपनी पुत्री से उसने मनभर प्रेम न कर पाया था। भी इसमें भाग लेती थी। इस तरह शान्ति के साथ मां- अब वह उसकी कसर पुत्रवधू से निकालना चाहती थी। बेटे के दिन कट रहे थे।
परन्तु पुत्रवधू मिले कैसे ? एक दिन अवसर पाकर उसने जिस समय कुंवर घर से निकले थे, उस समय एक कुंवर से कहाबार उनके मन में साधु बनने के विचार पैदा हुए थे। 'कुंवर ! जब तुम बाहर चले जाते हो तब मैं यहाँ लेकिन पीछे बहत विचारने पर उनने यही निश्चय किया बैठी-बैठी ऊब जाती हैं। कि इस छोटी-सी अवस्था से ही समाज के ऊपर अपना तो चलो मां! गांव में रहने लगें। वहाँ पड़ोस की निरर्थक बोझ डालना अच्छा नहीं। कुंवर के विचारों के स्त्रियाँ तुम्हारे पास बैठा-उठा करेंगी। अनुसार उसी मनुष्य को साधु बनने का अधिकार था- 'परन्तु यह स्थान छोड़ने को जी नहीं चाहता। घर जिसने युवावस्था में समाज की सेवा की है, भौर वृद्धा- में कोई एकाप लड़की होती तो सब सुविधा हो जाती। वस्था में पेन्शन के तौर पर समाज के ऊपर हलके से माँ! अपन गरीब हैं, एक झोंपड़ी में रहते हैं इसलिए