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वर्ष १५
'माइ रग्गण रत्य काहल ताल दिज्जहु मल्हहा, पिभपच्चासह महवा किन्तिउ रत्थावरूणण करिसह निश्चह सद्दहार पसन्त विष्णचि सव्व लोम विबुज्झिमा । मरिसहुँ (राइ) तुहु जसु नासइ (४६) वेवि का हल हार पूरहु संख कंकण सोहणा।
(विरह के सुख से वह न तो देखती न हंसती है परन्तु णामराम भणन्त सुन्दरि चच्चरी मणमोहणा ।।२३२॥ केवल प्रियतम की प्रत्याशा का ध्यान करती या कितना
उक्त पद्य की संस्कृत टीका भूषण में प्रकारान्तर से रथ्यावर्णन करूं वह तो शून्य वर्णन होगा, वह निश्चय ही इस प्रकार मिलती है।
मरेणी और उसका यश नाश को प्राप्त होगा)। हारयुक्त सुवर्णकुण्डल पाणि शंख विराजिता,
चर्चरी छन्द का उदाहरण देखिएपाद नूपुर संगता सुपयोधरद्वय भूषिता ।
चचरि चाच्चवहिं अच्छर किवि रासउ पेस्सहि शोभिता वलयेन पन्नगराज पिंगलवर्णिता,
किवि-किवि गायहिं वर धवलु. चर्चरी तरुणीव चेतसि-चाकसीति सुसंगता ॥
रचहि रचण-सत्थिन कि वि दहि अक्खय गिण(५) प्राकृत पिंगल सूत्र में चर्चरी छंद का उदाहरण
हहि किवि भूमूसवि तुह जिणधवलह (४६) इस प्रकार दिया हुमा है
(जिन वृषभ जन्मोत्सव में कोई अप्सरा सुन्दर चर्चरी पामणेउर झंझणकइ हंस-सद्द-सुसोहिरा,
बोलती है, कोई रास खेलती है, कोई उत्तम धवल मंगल थोव-थोव थणग्ग णच्चद मोत्तिदाम मणोहरा।
गाती है, कोई रत्न के साथ रचती है, कोई दही अक्षत वाम-दाहिण बाण धावइ तिक्ख चक्खु कडक्खिा ,
लेती है)। काहि पूरिस नेह-मंडलि खेह सुंदरि पक्खिा ॥२३२
(८) सं० १२४१ में सोमप्रभ सूरि रचित कुमारपाल (जिसके पैरों में नूपुर हंस शब्द जैसा सुशोभन झन
प्रतिबोध में' भी चर्चरी का उल्लेख मिलता हैकार करता है, जिसके थोड़े-थोड़े नवीन उभरे हुए स्तनों के
ग्रह पत्तु कयाइ वसंतसमउ जो,संजणिय सयलजण चित्तपमयो ऊपर मनोहर मुक्ताहार नाचता है जिसके दाहिनी बाई
उल्लासिय रूक्ख-पवाल-जसु पसरंत चारू चच्चरि च मासु भोर तीक्ष्ण अांख के कटाक्ष वाण की भांति दौड़ते है ऐसी
(फिर एक बार वसंत समय आया। वह समस्त सुन्दरी किस पुरुप के घर की शोभा बढ़ाती है सो तू देख)।
शोकों से मन को मुक्त करने (प्रमुदित) वाला, तथा वृक्षों (६) हेमचन्द्राचार्य ने अपने छन्दोनुशासन के अध्याय
के पल्लव समूह को प्रफुल्लित करने वाला था जिसमें वेल (७,४६) में रथ्या वर्णक छन्द का एक सूत्र दिया है कि
(लता) समान सुन्दर चर्चरी गीत प्रसारित होते थे)। "षचता रथ्या वर्णकं ठजे रितिषण-मात्रमेकं, चतुर्मात्रंस.
(8) मंदेश रासक नाम अपभ्रंश काव्य में चर्चरी पूतकं त्रिमात्रश्च रथ्यावर्ण कं ठजरिति द्वादशभिरष्टभिश्च
संज्ञक कड़ी देखिएयतिः । इस प्रकार एक ६ मात्रा, सात-चार मात्रा और एक
चारहि गेउ मुणि करिवि तालु त्रिमात्र अर्थात् कुल ३७ मात्राओं का रथ्यावर्णक है कि
नरिचयह खउव्व वसंत कालु जिसमें १२वीं और फिर पाठवीं और २०वी मात्रा पर
घणनिविड़हार परिखिल्लरीहि, यति माती है। इसके पश्चात् (७,४७) में चच्चरी ठज:
रूणझुण रउ मेहल किंकिरगीहि जैरिति चतुर्दशभिरष्ठभिश्च यतिश्चेत् तदा तदैव रथ्यावर्णकं बच्चरी। जिसमें १४वीं और २२वीं मात्रा पर यति
(चर्चरी गाकर ताल सहित नृत्य करके अपूर्व वसन्त माती है वह रय्यावर्णक चच्चरी कहलाती है।
काल नृत्य करता पाता है वन निविड़ हारवाली खेतली (७) स्वयंभूछन्दः (४,१६५ तथा १९६) में भी रथ्या
स्त्रियों से उनके मेखला की किंकिणी बड़ी रूणझुण शब्द वर्णक का उदाहरण मिलता है। निम्नांकित उदाहरण में
करती थी)। दोनों का मन्तर देखिए
१. देखिए कुमारपाल प्रतिबोध : सोमप्रभ सूरि, पृ.५४४ विरह रहक्कइ सुहय न जंपहन हसह भावह केवलु २. जैन गुर्जर कवियो-प्रस्तावना, पृ० ५६