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माविकालीन 'पर्चरी' रचनामों की परम्परा का उदजय और विकास
(१०) ढोला मारू रा दोहा में भी चर्चरी का चत्वर (संस्कृत, प्राकृत चंच्चर और पुरानी हिन्दी मेंप्रसंग मिलता है
चाचर)। फागुण मासि वसंत रूत पायउ जइन सुणकि
सं० १२८६ वसंत में रचे हुए पाबूरास की कुछ चाचरिउइ मिस खेलती होली भंपावरू (१४५) पंक्तियाँ देखिए:
(वसंत ऋतु के फागुन मास में यदि तुम्हारा माना। गूजर देसह मज्झि पहतणं, चंद्रावती नयरि वक्खाणं मुझे न सुनाई दे, तो चर्चरी के बहाने मैं होली में खेलूंगा)। त्रिग्चाचरि चउहह थाग पढमंदिर धवल हर पगारा इसमें सम्पादक चर्चरी सम्बन्धी टिप्पणी लिखते है कि
मैं उक्त पद में गुर्जर देश के मध्य में 'चंद्रावती' नामक फागुण में होलिकोत्सव के उपलक्ष्य में होने वाले गीत
नगरी का वर्णन प्रस्तुत करता हूँ। उसमें तीन रास्ते जहां नृत्य आदि से चाचरि चर्चरी होली में गाये जाने वाले
मिलते हों ऐसा त्रिक, चाचर-चार रास्ते मिलें, ऐसा चौक, एक राग विशेष को कहते है ।।
चउहट्ट-चौहटों का तथा विद्या-मंदिरों का विस्तार हो,
महल तथा बड़ी-बड़ी हवेलियां हों। (११) हिन्दी साहित्य में कबीरदास की रचनाओं में
एक अन्य कोष में चाचर शब्द का अर्थ पु. (सं० बीजकमें चांचर नामक एक अध्याय है। इस चांचर में चर्चरी
चत्वर) मण्डप के बाहर जो खुला चौक होता है वह, के प्राचीन शिल्प के अंकुर विद्यमान हैं । इसका एक उदा
चकलो अर्थ भी दिया है जो अनेक प्रमाणों से अक्षरशः हरण इस प्रकार दिया जा सकता है :
गुजराती शब्द कोष में भी मिलता है-वह चाचर के खेलती माया मोहनी जिन जो कियो मंसार
आधार से बना-चाचरियां शब्द का मूल रूप चर्चरी गीत रच्यो रंगते चूनरी कोई सुन्दरि पहिरे पाय
ही है । यह चाचर में बोला जाने वाला, गाया जाने वाला नारद को मुग्व मांडिके लीन्हो वमत छिनाय
गीत ही है । फिर ना० कोश में इसका अर्थ कर्ता को जैसा गरब गहली गरब ते उलटि चली मुसकाय
भी लगा विस्तार से उदाहरण प्रस्तृत करके ऐमा स्पष्ट एक अोर सुर नर मुनि ठाढ़े एक अकेली प्राय
किया है-चकलाकी-देवी के गण लग्न के चौथे पाठवें दिष्टि परे उन काहु न छाड़े के लीन्हो एक धाय दिन चकला की रक्षा करने वाली देवी का पूजन कर बलि
(१०) जायसी और तुलसी ने भी चर्चरी के रामगुण दान करते थे फिर उसके गणों की पूजा करते थे चारों ग्रामका उल्लेख किया है
दिशाओं को चार उपहार रखे जाते थे और फिर एक के १. खिनहि चलहि खिन चांचरि होइ
पीछे एक पानी की धार करके पूछते थे-चाचरियो । नाच कृद भूला सब कोइ-(जायसी) चाचरियाँ । तुम कौन सी बात कहने के लिए आये हो तो २. तुलसीदाम चाचरि मिस, कहे रामगुण ग्राम (तुलसी) पास में खड़ा कोई गणों का प्रनिनिधि बोल उठता था
(१३) हिन्दी भाषा कोश में चाचर, और चांचर कि अमुक व्यक्ति के लिए-उनमे कोई सम्बन्धी का नाम चांचरी-वसंत ऋतु के एक राग होली में गावंतु गीत, ही होता था। फिर उनसे पूछा जाता था कि इस प्रमुक ने चर्चरी राग, होली के खेल-तमाशे, धमाल, उपद्रव, हलचल, क्या किया है ? तो उत्तर होता था कि इगने सारी जाति हल्लागल्ला, शोर आदि प्रथमाक्षर अनुस्वार बिना व को तो खब भोजन कगया पर धर के अनुसार दक्षिणा अनुस्वार सहित रूप वाले शब्द हैं।
नहीं दी । हमो रे भाई हा हा । इस प्रकार के चार प्रश्न यह तो हई चच्चरी शब्द के विविध प्रर्थों में प्रयुक्त होते है । इस प्रकार चांचरियों में अधिकतर उपहास व हुए स्वरूप के पारंपरिक प्रमाण सम्बन्धी बात । अब आदि- हास्य होता है। कालीन हिन्दी जैन साहित्य में प्रयुक्त चर्चरी की भी थोड़ी चाचर- चौक में गाने वाले चर्चरी गायकों की टोली सी चर्चा करली जाए। गुजराती साहित्य में चर्चरी के लिए या उनका प्रमुख गायक-चाचरीया कहलाता था। उसके कहा जाता है कि जहां दो या दो से अधिक मार्ग मिलते है। सम्बन्ध में पुरातन प्रबन्ध संग्रह तथा वस्तुपाल प्रबंध के क्रमशः