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किरण माविकालीन 'परी' रचनामों की परम्पराका पदभव और विकास
११ अपभ्रंश काव्यत्रयी में चर्चरी पर बहत विस्तार से शब्दों आदि के रूप में मिल जाते हैं। वस्तुतः ये नाम विचार किया गया है तथा उसमें जिन-जिन विभिन्न विद्वानों अत्यन्त प्रसिद्धि-प्राप्त गीत, नृत्ययुक्त गान-क्रीड़ा गुदनादि द्वारा चर्चरी का प्रयोग किया गया है उनका भी उल्लेख पद्धति की भांति प्राचीन हैं। महाकवि कालिदास ने है। अपभ्रंश काव्यत्रयी के साथ-साथ कुवलय माला कथायाम् 'विक्रमोर्वशीय' के चौथे अंक में बहुत से चर्चरी-पद्यों की में भी चर्चरी को सम्बोधित करते हुए उल्लेख मिल जाता रचना अपभ्रंश भाषा में की है। हरिभद्र सूरि ने भी
'समराइच्च-कहा' के प्रारंभ में, उद्योतन प्राचार्य ने 'कुवलयइस प्रकार प्राचीनकाल में चर्चरी का स्वरूप जिस माला-कथा' के पूर्वार्द्ध में, शोलंकाचार्य ने 'चउप्पान्न महाप्रकार का गीतिशिल्प लिए था, उसकी प्राचीनता और पुरिसचरिय' में, सर्वश्री हर्ष ने रत्नावली-नाटिका के प्रारंभ चच्चरी-चांचरि इस नाम की सार्थकता के प्रमाण प्राकृत में और भी अन्य कइयों ने चर्चरी का वर्णन किया है। और अपभ्रंश में चच्चरी-चाचरि और संस्कृत में चर्चरी हेमचंद्राचार्य के पहले के प्राकृत और अपभ्रंश ग्रन्थ कर्तामों
ने भी चर्चरी का वर्णन किया है । वस्तुत. यह चर्चरी गीत परिमिता।
बहुत ही प्रसिद्ध गीत रहा है। विक्रम की दशवी शताब्दी यमकालंकाराद्यलंकृता प्रस्तुता चर्चरी तु सप्तचत्वारिं- में धनपाल विरचित भविसयत्तकहा में भी इस गीत का शत्पद्यप्रमिता जिनवल्लभसूरिस्तुतिरूपा चैत्यविधि उल्लेख मिलता है। इन उल्लेखों के अतिरिक्त और भी प्रधाना संस्कृतवृत्तिसमन्विता वृत्ति कृत्सूचनानुसारेण पढ़ कई तथ्य, जो चर्चरी शब्द की महत्ता विभिन्न रूपों में (ट) मंजरीभाषया नृत्यद्भिर्गीयमाना च ज्ञायते । पट- स्पष्ट करते हैं, व्यवहृत हुए हैं। मंजरीरागो ऽसूचि खलु नारदकृते इत एवं प्रकाशिते संगीतमकरंदादी दृश्यन्ते प्रभूतानि पटमंजरी पद्यानि विक्र. २. घरि घरि मंगलई पघोसियाई, घरि घरि मिहणई मीय सप्तमशताब्दीसम्भूतं लईपाद प्रभृतिभिवरचितेषु
परिमोसि प्राई चर्चचर्यविनिश्चयादिपु श्रीयुत महामहोपाध्याय हरिप्रसाद धरि धरि तोरणई पमाहियाई, घरि घरि सयण शास्त्री महाशयः सम्पादिते बगीय साहित्य परिषदा
अप्पाहियाई। प्रकाशिते बौद्धगाने प्रौ दोहा संज्ञके पुस्तके वि० सं० १३५८ घरि घरि बहुचंदनच्छडय दिन्न, मरू कुदवणयदवणाय वर्षे पटमंजरी भापया रचितं गौतम चरित कुलक मुपालभ्यते पत्तनीय जैन भाण्डागारे । अनेन पट (ढ) मंजरीरागस्य घरि घरि सरेणुरइ पिंजरीउ, सोहंति चूयतरूमंजरीउ चिरात् प्रतिष्ठाऽवसीयते । (अपभ्रंश काव्यत्रयी पृ० ११४
घरि घरि चच्चरि कोहलाइ, सी० डी० दलाल, भूमिका भाग)।
घरि घरि अंदोलय सोहलाहिं । १. जहातेण केवलिया अरणं पएसिऊण पंचचोरसयाई
घर परि कयवत्या हरण सोह, रासणच्चणच्छलेण महामोहगहगहिपाइं अक्खिविऊण
धरि धरि पाइद्ध महाजसोह । इमाए चच्चरीए संबोहियाई । प्रविय
घता-घरि घरि जस मंगल कलस किय घरि घरि घर संबुज्झह किण्ण बुज्झह एति लएवि मा किचि मुज्झह
देवय अवयरिय। करिउ जं करियव्वयं पुण दुक्कइ तं भरिमव्वयं ॥ घरि घरि सिंगार वेसु धरिणि नच्चउ बरजुवइहिं उत्थरिवि कसिणकमलदललोयण चलोह तउ पीण-पिहुलथण
(भविसयत्तकहा-८-६। कडिमल भार । किलंतउ (घर-घर मंगलों का प्रघोष था, घर-घर वर वधू की तालयलि रयलयावलिकलयलसद्दउ रासयम्मि जइ- जोड़ी परितुष्ट थी। घर घर तोरण बंधे थे, घर-घर लन्भइ जुप्रतीसत्थउ संबुज्झह किण्ण बुज्झह,पुणोधुवयं मनुष्य आत्महित साधते थे, घर पर चंदन का छिड़काव (कुवलयमाला कथायाम्)
होता था। और मरवे के वृक्ष कुंदवन में होने वाले