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आदिकालीन 'चर्चरी' रचनाओं की परंपरा का उद्भव और विकास
लेखक-डा. हरीश
[गतांक से मागे)
इस उद्धरण में चर्चरी शब्द गायक टोलियों या में चर्चरी को वसन्त गान बताया है। वे टोलियाँ जो उत्सव मंडलियों के लिए प्रयुक्त हुआ है। इसी प्रकार शेष वसन्त में चर्चरी प्रस्तुत करती हैं जिनके साथ तूर्य आदि दो उद्धरण देखे जा सकते है :
वाद्य बजाये जाते थे। पर ये टोलियां किकर जेसे निम्नस्थ ३: अन्नयायं समागमो वसन्त समयो।-सुइ सुह वर्ग की होती थी। सुवन्तचच्चरीतूरमहुरनिग्योसो।
चर्चरी सम्बन्धी अन्य प्रमाण, जो प्राचीन ग्रन्थों में (इसके बाद वसन्त समय मा पहँचा ।-कैसा? उपलब्ध होते हैं, संक्षेप में इस प्रकार हैं। इन उल्लेखों अनेक विशेषणों में से एक विशेषण प्राप्त करता है जो में चर्चरी सम्बन्धी अर्थों में परिवर्तन मिलते है । पर्चरी का चर्चरी और तूर्य वाद्य को सुन कर मधुर निर्घोष श्रुति दूसरा अर्थ एक प्रकार का गीतविशेष है। सुख देने वाला होता है ऐसा'।
श्री हेमचन्द्र प्राचार्य अभिधान चितामणि' में लिखते ४: एवं गुणाहिगमे य पवत्ते वसन्त समए सो सेण हैं :-शुभाकल्या चर्चरी चमरी समे ये वस्त्र प्राप्त कर कुमारी किलानिमित्तमेव विसेसज्जलनेवच्छेण संगयो उसकी वृत्ति में चारुमयते अनया--(जो बड़े चार थे, ऐसे परियणेणं पयट्टो अमरनन्दणं उज्जाणं । दिवो य-पवज्ज- सुन्दर बोलों वाली शुभ वाणी चर्चरी ।। माणेयाँ वसन्तचच्चरीतूरेणं नच्चमाणेहि किकरगणेहिं १. अभिधानचितामणि (२-१८७) हेमचंद्राचार्य । एरावणगो विय तिय सकुमार परियरिमो देवरायोक्ति
२. प्राकृतापभ्रंशादिभाषायां चच्चरी, चार्चार, इति(इस प्रकार के गुणों से सुन्दर वसन्त समय के आने नाम्ना संस्कृतभापायां च चर्चरी इति सशया प्रसिद्धाया पर वे सेनकुमार क्रीड़ा के लिए ही विशेप उज्ज्वल नैपथ्य गीतेनत्य पूर्वगान क्रीडन गुम्फनादिपद्धतिः प्राचीना परिज्ञायते वाले परिजनों सहित अमरनन्दन उद्यान में प्रवृत्त हुए और यतः कविकालिदासो विक्रमोर्वश्याश्चतुर्थे ग्रंके प्रभूतानि चर्चरी उन्होंने देखा (क्या? माने) वसन्त की चर्चरी गायक पदान्यपभ्रंशभाषायां व्यरचयत् । हरिभद्रसूरिः समरा टोलियों के बजते हुए तूर्य वाद्यों पर नाचते हुए किंकर दित्यकथाऽदो दाक्षिण्यचिह्रोद्योतनाचार्यः कुवलयमाला कथागण के साथ ऐरावत हाथी पर बैठा हुमा त्रिदशकुमारों दौ, शीलांकाचार्यश्चतुष्पंचाशन्महापुरुषचरिते, कविः श्री अर्थात् देवकुमारों के परिकर वाला देवराज अर्थात् इन्द्र हर्षो रत्नावलीनाटिकायाः प्रारंभे चान्यत्र स्मरंति स्म चर्चरी हो, ऐसा
मा। पिंगलनागहेमचन्द्रादयः प्रतिपादयन्ति स्म चर्चरीइस प्रकार इस विवेचन में तृतीय उद्धरण में चर्चरी लक्षणानि निजच्छन्द. शास्त्रच्छन्दोनुशासनादौ । का अर्थ सुन्दर वाद्यगान करके उसे मधुर निर्घोष श्रुति प्रसिद्धं यत् खलु कवि सोलणकृता चर्चरी इत एव प्रकासुख देने वाला कहा गया हैं । अन्तिम या चतुर्थ उद्धरण शितप्राचीनगूर्जरवाव्यसंग्रहे। उपलभ्यते चान्या पत्तनीय
जैन भाण्डागारादी वेलाउली (विलावल) रागेण गीयमाना १. समराइच्च कहा : प्रो० हर्मनजैकोबी संपादित
शत्रुञ्जय माउनादि जिनस्तुतिरूपा पंचत्रिशगाथाप्रमाणापृ० ६३६ ।
प्रायो विक्रमीयचतुर्दशशताब्दीसम्भवा, इतरा च गूर्जरी २. समराइच्च कहा : प्रो० जेकोबी, पृ० ६३८ । रागण गीयमाना गुरु-स्तुति रूपा संक्षिप्ता पंचदशगाथा