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किरण ४
समय और हम इस मेरे विश्वास से उल्टी न होगी कि सृष्टि सब ईश्वर में लगी रहेगी और मभीप्सा चिरंतन होकर हमें सदा उन्मुख से है। मेरा काम उस श्रद्धा से चल जाता है और मैं उसे बनाये रखेगी। अटूट भी मानता हूँ।
प्रश्न-'ईश्वर ने बनाई' को न मानकर क्या हम इसीको दूसरे शब्दों में कहें तो अधिक से अधिक वैज्ञा- आस्तिकता को क्षुब्ध-कुठित नहीं करते ? निक ज्ञान रखकर भी रहस्य जैसा कुछ रह ही जाएगा।
उत्तर-नहीं, बिल्कुल कुठित नहीं करते। बल्कि भगइस तरह श्रद्धा और भक्ति विज्ञान की परक ही है, विरोधी वन्निष्ठा को, उसकी मास्तिकता को ज्वलन्त और प्रखण्ड नही है।
करने के प्रयास में हम देखेंगे कि यह 'ने' की भाषा, कर्तृत्व
की धारणा, सहज पार होती जाती है। सृष्टि समक्ष है । जिस गर्भ में से उसका उद्भव हुआ,
____ अभी हाल के इतिहास के महात्मा गांधी को लें। उसके तल को पाना हमारे लिए असम्भव है। असम्भव
उनसे बड़ा आस्तिक कौन होगा ? लेकिन अन्त में "ईश्वर इसलिए कि हम सृष्टि के अंग है, यानी जन्म पा गये हैं और गर्भ के बारे में अनुमान ही रख सकते है, प्रत्यक्ष ज्ञान
सत्य है" की जगह "सत्य ईश्वर है" कहना उन्हें अधिक
मान्य और प्रिय हुआ। जवाहरलाल नेहरू जैसे उनके नहीं पा सकते । फिर भी जो प्रत्यक्ष और निःसंशय है वह
साथी इसका प्राशय नहीं समझ पाये । कैसे समझते ? फिर यह कि सृष्टि स्रष्टा की लीला है। वैसा न होता तो हममें
भी वक्तव्य में गहरा सार है वह यह कि सत्य में 'कर्त त्व' जीवन के प्रानन्द की अनुभूति न होती।
का आरोप नहीं रहता, 'ईश्वर' शब्द में जाने-अनजाने कर्ता प्रश्न--सृष्टि ईश्वर से उत्पन्न हुई, या उसे ईश्वर ने
का भाव आ जाता है । लेकिन ईश्वर की जगह सत्य को बनाया, या वह स्वयम्भूत है ?
रखने से गांधी जी में क्या तनिक भी शिथिलता पाई ? उत्तर-'उसने बनाई', 'उससे बनी', ये दोनों बातें आस्तिकता क्या ढीली होती मालूम हुई ? नहीं, बैसा नहीं हमारे मन में दो अलग चित्र पैदा करती है। यह हम पर हुआ । बल्कि सत्येश्वर के प्रति उनका समर्पण अमोघ और है कि चित्र हमे कौन सा भाता है । लेकिन उस चित्र की अनन्य होता ही चला गया । सच्चाई हम तक है, स्रष्टा तक वह नही पहुँचती। प्राशय कि सत्य निर्वैयक्तिक है। इसलिए खतरा यह रहता है कि लीलामय और लीला से अधिक कुछ नहीं कहा जा सकता। उसके साथ व्यक्तिगत सम्बन्ध, रागात्मक सम्बन्ध, भावालीला में कर्तृत्व का भाव है भी, और नहीं भी। उसने त्मक सम्बन्ध नही बन पाता। सम्भव यह भी रह जाता बनाई इसमें कर्तृत्व है और हेतु की अपेक्षा है। 'उससे बनी' है कि सत्य के नाम पर हममें स्वार्पण-भाव, भक्ति-भाव न यह स्वभावज है, इसमें जैसे अपेक्षा की आवश्यकता नहीं। हो, बल्कि एक स्वत्व और अहंभाव हो; यानी वह माना स्वयंभूत भाव भी इसमे समा सकता है, सृष्टि और स्रष्टा हुआ सत्य हमारे ही अहं का प्रक्षिप्त रूप हो, यह खतरा मे हम इतना अभेद क्यों न माने कि बीच में क्यों "कसे" ईश्वर कहने से एकदम बच जाता है। उसमें अनिवार्य एक आदि प्रश्न सम्भव न रह जाएं । सृष्टि समक्ष है, क्यों न दास्यभाव प्राप्त होता है। अहं की सीमा उसमें गल जाती मानें कि सृष्टा ही उस रूप में समक्ष है । कठिनाई इतनी है और सिर झुक जाता है। यह आर्जव (नम्र) भाव होती है कि सृष्टि दीखती अनन्त है । अनन्त, उसकी विचि- जीवन को सम्पन्न व स्वस्थ करता देखा गया है । इसलिए त्रता और विविधता है। असंख्य रूप-रसमय इस नानात्व में सत्य में ईश्वरत्व को मिटा देने का मैं हामी नहीं हूँ। काम स्रष्टा की एकता और अखंडता दीख नहीं पाती तो यह काज में लगे सामान्य मनुष्य के लिए ईश्वर बहुत उपयोगी कि एक अनेक कैसे हुआ? और अनेक एक क्योंकर है? इसको और आवश्यक होता है, उस संज्ञा के सहारे परम से उसका हम विस्मय-प्रश्न के रूप में ही क्यों न अपने में धारें और निजी व रागात्मक सम्बन्ध बना रहता है । वे दर्शन पूजा कहें कि उसके रहस्य-मूलक का सदा स्पन्दन पाते रहें। द्वारा अनन्तानन्त समष्टि से अपना नाता जोड़ पाते हैं और जीवन ऐसे प्रसन्न और प्राणवन्त रहेगा। उसमें जिज्ञासा इस तरह अपनी निजता से ऊँचे उठने और पार जाने की