Book Title: Anekant 1962 Book 15 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 188
________________ १६२ प्रकान्त वर्ष १५ आदि का कवि ने विस्तार से वर्णन किया है । तदनन्तर भारती उतारने, जल-नमक उतारने, घण्टा बजाने का उल्लेख करके हर्ष के साथ उत्सव मनाने का उल्लेख करते हुए विषय का उपसंहार किया है। तीसरे क्षेष—जिन बचन को अमूल्प बतलाते हुए गणधर पूर्वपर, केवली, दसपूर्वघर द्वारा सिद्धान्तों के कहे जाने का उल्लेख किया है। पूर्व और ११ अङ्ग इन आगम ग्रन्थों में भवनों के पदार्थों का वर्णन होना लिखा है। गौतम गणधर ने महावीर से त्रिपदी का सूत्र-रूप ज्ञान पाकर विस्तार से आगमों की रचना की । काल प्रभाव से केवल ज्ञानी धौर पूर्वपर की परम्परा विच्छिन्न हो जाने के बाद इतने बड़े श्रुतज्ञान को कंठस्थ रखना कठिन हो गया तो | पुस्तक के रूप में लिखा गया। इसलिए इन सिद्धान्तों को लिखाने में अपने द्रव्य को लगाकर ज्ञान भक्ति करनी चाहिए । चौथा क्षेत्र - श्रमण- साधु को बतलाया है । उनको वस्त्र पात्रादि १४ उपकरण देना चाहिये । उन्हें ४२ दोष रहित श्राहार कराना चाहिये, जिससे मुनिजनों के संयम तथा चरित्र पालन में सुविधा रहे । 'सात क्षेत्र' इस बोलिया, मागम धणुसारे । पुण तुम्हें वानीयं मनीवपरि विस भाषणरे ॥११३॥ अर्थात् १. जिन भवन के निर्माण, २. जिन बिन याने मूर्ति के निर्माण प्रतिष्ठा और ३. जिन वचन रूप सिद्धांत शास्त्र को लिखने लिखाने तथा ४. साधु, ५. साध्वी, ६. श्रावक, ७. श्राविका की सेवा भक्ति में अपना द्रव्य खर्च करने का विधान इस रास में किया गया है। श्वेताम्बर जैन समाज में ये सात क्षेत्र बहुत ही प्रसिद्ध हैं । 'पाइन सद्दमहष्णवो' नामक प्राकृत कोष के पृष्ठ १०७६ में भी सातों क्षेत्रों का उल्लेख हुआ है। सत्त ( स तन् ) सात संख्या वाला, खात [सत्त] किती खेती (सप्त क्षेत्री) १. जन-२ निविम्ब, ३. जैन धाराम, ४. साधू ५. साध्वी, ६. श्रावक और, श्राविका, ये सात धन-व्यय स्थान । वस्तुत: उक्त रास में केवल इन सात क्षेत्रों का ही विवरण पाया जाता है। इसमें गणितानुयोग या विश्व ब्रह्माण्ड की रचना सप्तक्षेत्रों की सृष्टि, भरतक्षेत्र के निर्माण प्राकृतिक छटा की पपेक्षा प्रकृति में पाये जाने वाले पदार्थों की नामावली यादि का वर्णन, जैसा कि डाक्टर प्रोझा ने समझा है, बिल्कुल नहीं हैं। " 1 प्रथम क्षेत्र जिन-मन्दिर के निर्माण के प्रसंग में मूल गुंभारा, गूढ़ भंडप, ६ चौकी, रंग-मंडप, बलाय उतंग तोरण, कनक-कलश, दण्डध्वज, कपाट, तालाकूची, प्रष्ट प्रातिहा भादि छोटी-छोटी बातों का उल्लेख ही कवि से किया हैं। इसके बाद जोर्णोद्धार अर्थात् मंदिर की मरम्मत कराने में अपार पुण्य होने की सूचना दी गई है । " दूसरे क्षेत्र — जिन-बिम्ब के विवरण में मणि, रत्न, स्वर्ण, रौप्यमय मूर्तियों, गृहचैत्य, पाषाण और पीतल की मूर्तियां, सुगंधित जल से स्नान कराने, अंगलूहन से पूछने धूप, बालाकुंची, कस्तूरी, कुंकुंमादि द्वारा पूजा और सोने, हीरे, माणिक, मोती के ग्राभरण (आभूषण) कुण्डल, मुकुट माला, हार, बहरखा, श्रीवत्स, बीजौरा, श्रादि द्वारा मूर्ति को आभूषित करने और विविध प्रकार के पुष्पों द्वारा पूजा करने के कार्य में द्रव्य-व्यय करने का उल्लेख किया है । इसी प्रसंग में उत्सव के समय जिन भवन में तालारस, लकुटारस, खेलने और नाचने का उल्लेख है । मधुर स्वरों से जिनेश्वर के दुगों का वायन बाओं सहित किये जाने पांचवें क्षेत्र - श्रमणी -साध्वी को बतलाया है। उन्हें २५ प्रकार के उपकरण देने का उल्लेख करके यह कहा गया है कि अच्छे स्थानों में धन को खर्च किये बिना भवांतर में द्रव्य प्राप्त कैसे होगी। अच्छे क्षेत्र में धन का व्यय करने से अनंत गुना फल प्राप्त होता है, (पाक ३-४) (पद्यांक इसलिए साधु-साध्वी को आहार, पानी, घोष और विद्यादान में श्रावक को अपने धन का उदारता से खर्च करना चाहिये । वंदन, विनय, वैयावच्च, द्वारा उनकी सेवा करनी चाहिये । इसके बाद जिन लोगों ने मुनियों को दान दिया और उनका उन्हें सुफल मिला, उनका उल्लेख पद्यांक ६१ से ९४ में किया गया गया है। छठा और सातवां क्षेत्र श्राविका का बतलाया है जो वीतराग के वचनों पर श्रद्धा रखने वाले और व्रतों को धारण करने वाले होते हैं। उनकी भोजन, वस्त्र धादि से भक्ति करनी चाहिये। स्वधर्मी की भक्ति से बड़ा लाभ होता है । तदनन्तर धर्मानुष्ठान करने के लिए पौषधशाला के निर्माण और धर्म प्राराधन के काम में धाने वाली वस्तुओं को वहाँ रखने का विधान किया गया है। इस तरह आवक श्राविका इन ७ क्षेत्रों में अपने धन का सद् व्यय करके पुण्यलाभ करें, यही इस रास के रचे जाने का उद्देश्य है।

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