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कविवर बनारसी दासायास्कृतिक देन
संस्कृति प्रयोवनातीत अन्तर माननद की अभिव्यक्ति है।" (प्रसंग्रह) अनेकान्त-दर्शन और महिमा द्वारा मिलता.रहा __ कविवर बनारसीदास के सम्पूर्ण साहित्य में मध्यात्म है। भारतीय सन्तों का मनोराज्य बस्तुतः अनुपम है-- प्रधान भारतीय . संस्कृति का उज्ज्वल रूप मिलता है।
"रे मन कर सदा सन्तोष । उन्होंने अपने पूर्ववर्ती सन्तों से. इस देश की जो संस्कृति
ब्रात मिटत सब दुःख दोष ॥ निधि प्राप्त की थी, उसे अत्यन्त विकसित, परिमार्जित बढ़त. परिग्रह मोहः बाढ़त, अधिक तृसना होति । एवं जमग्राह्य रूप में प्रस्तुत किया। सन्तों की उच्च-भाव बहुत ईधन जरत जैसे, भगिनि ऊँची जोति ।। भूमि पर पहुंचकर कविवर के साहित्य ने वही दशा ग्रहण लोभ लालचि मूढजन सो कहत कंचन दान । की जो सम्प्रदायगत, रूढ़िात एवं जातिगत नाचार-विचारों फिरत भारत नहिं विचारत, धरम-धन की हान ॥ की तंग गली की उपेक्षा कर सम्पूर्ण मानव जगत का दिव्या- नार किन के पाइ सेवत, सकुच मानत संक। . दर्श बन सकती है। बनारसीदास ने मानव-विकास ज्ञान करि बूझे "बनारसि" को नृपति को रक ॥" (मात्मोन्नति) में बाधक जिन तत्त्वो का अनुभव किया
भारतीय संस्कृति का मूर्तरूप समन्वय की चिरन्तन उनका भी निराकरण किया। अनेक मौलिक विवेचनाओं
भावना है। बनारसीदास ने अपने साहित्य में ऊर्ध्वबाहु द्वारा सांस्कृतिक इतिहास में नवीन जीवन का संचार होकर इसकी उदघोषणा की है। पूर्ण सत्य
होकर इसकी उद्घोषणा की है। पूर्ण सत्य का साक्षात्कार किया। शुद्ध ज्ञान की चर्चा करते हुए कविवर उसे ही
॥ करते हुए कविवर उस हा और पूर्ण मुखानुभव सर्व समभाव में ही सम्भव है।" अध्यात्म का प्राधार बताते है
"समन्वयात्मक भारतीय संस्कृति की भावना को जनता में "ज्ञान उदै जिनके घट अन्तर,
बद्धमूल करने और मूर्त रूप देने के लिए आवश्यक है कि ज्योति जगी मति होति न मैली ।
हम विभिन्न सम्प्रदायों के उत्कृष्ट साहित्य को भारतीय बाहिज दृष्टि मिटी जिनके हिय,
संस्कृति की अविच्छिन्न धारा से सम्बद्ध मानते हुए उसे प्रातम ध्यान कला विधि फैली ।
अपनी राष्ट्रीय सम्पत्ति और अपना दाय समझे और उससे जे जड़ चेतन भिन्न लिखें,
लाभ उठाएँ। उनके अपने-अपने महापुरुषों को सब का सुविवेक लिए परखें गुन थैली।
पूज्य और मान्य समझे और अपने विचारों को साम्प्रते जग में परमारथ जानि,
दायिक परिभाषा से निकालकर उनके वास्तविक अभिगहें रुचि मानि अध्यातम सैली ॥"
प्राय को समझने का यत्न करें। दूसरे शब्दों में प्राचीन वास्तव में जिनके अन्तरंग में सम्यग्ज्ञान का उदय ग्रन्थों के वचनों के शब्दानुवाद के स्थान पर भावानुवाद हो गया है। जिनकी ज्योति जागृत है; जो शरीर में
की आवश्यकता है।" हमारे भाराध्य क्रान्तद्रष्टा सन्तो ने प्रात्म-बुद्धि नहीं रखते और जो जड़-चेतन को पृथक्-पृथक्
इसी दिशा में सुदीर्घ काल से हमें भव्य सन्देश दिए है। जानते हैं वे ही शुद्ध प्रात्मानुभव करते है ।।
कविवर बनारसीदास ने आज से साढ़े तीन सौ वर्ष पूर्व भारतीय संस्कृति समभाव प्रधान है। उसमें थम, ही सम्प्रदाय, जाति एवं रूढ़ियों की दल-दल से ऊपर उठ शम और सम ये तीन मूल-तत्त्व हैं। जिस श्रमण संस्कृति कर मानवैक्य की प्रादर्श घोषणा की थीका उज्ज्वल ध्वज बनारसीदास ने फहराया और देश की "एक रूप हिन्दू तुरक दूजी दसा न कोय । गहरी तन्द्रा भङ्ग की वह वरेण्य है-उसी के श्रम आदि मन की दुविधा मानकर भये एक सों दोय ।। ये तीन माघार स्तम्भ है। भारतीय समाजवाद अहिंसा---
१. 'बनारसी विलास' (अध्यात्म पद पंक्ति) २२८ त्मक क्रान्ति' में विश्वास करता पाया है। यही स्वर
२. “भारतीय संस्कृति का विकास (वैद्यक द्वारा)" प्राचार्यों और सन्तों द्वारा हमें बड़ी तीव्रता से अपरिग्रह
ले०-डा. मङ्गलदेव शास्त्री, पृष्ठ ४५ १. “नाटक समय सार" (निर्जराद्वार) छन्द २५ ३. "बनारसी विलास" (फुटकर पद)