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दोऊ भूने भरम में करें वचन की टेक। कवियों के प्रति बनारसीदास का यह उद्घोष आज भी "राम राम" हिन्दू कहें, तुरक "सलामालेक" । वरेण्य हैइनके पुस्तक बांधिए, बेहू प कितेव ।
"मांस' की गरंथि कुच कंचनकलस कहें, एक वस्तु के नाम है, जैसें शोभा-जेब ॥ कहें मुख चंद जो सलेसमा को घरु है। जिनकों दुविधा सो लखें, रंग बिरंगी चाम ।
हाड़ के दसन माहि हीरा-मोती कहें ताहि, मेरे नैनन देखिए, घट घट मन्तर राम ॥"
मांस के अधर मोंठ, कहँ बिम्बफरु है । उल्लिखित पंक्तियाँ कवि के निर्भीक, राष्ट्रीय, सम
हाड़ दण्ड भुजा कहें कोलनाल कामधुजा,
हाड़ ही के थंभा जंघा कहें रम्भातरु है; भाव परक एवं सुलझे हुए दृष्टिकोण की स्पष्ट सूचना देती हैं। अपने पश्चात् वर्ती हिन्दी कवियों (विशेषतः जन
योंही झूठी जुगति बनावें श्री कहावें कवि, कवियों) के लिए तो काव्य-दशा-निर्देशन में बनारसीदास
एते पर कह हमें सारदा को वरु है।
सौंदर्य की यथार्थवादी विवेचना कवि ने प्राज से साढ़े जी का साहित्य एक प्रकाश स्तम्भ ही बन गया है। भैया भगवतीदास, सन्त मानन्दघन, भूधरदास, द्यानतराय एवं
तीन सौ वर्ष पूर्व ही कर दी थी। जो कवि समाज एवं राष्ट्र
के चरित्र का निर्माता एवं नियन्ता कहा जाता है उसके दौलतराम मादि कवियों पर बनारसीदास की माध्यात्मिक
द्वारा उक्तकोटि का स्थूल-अश्लील वर्णन कहां तक उचित एवं राष्ट्रीय भावना की छाप स्पष्ट देखी जा सकती है।
है? माश्चर्य तो बनारसीदास जी को तब होता है जबकि परवर्ती हिन्दी काव्य जगत को बनारसीदास जी की यह
ऐसे कवि भी स्वयं को सरस्वती का वरद पुत्र मानते हैं अनुपम देन है।
"एते पर कहें हमें सारदा को वरु है।" बनारसीदास जी बनारसीदास जी ने संस्कृति के क्षेत्र में एक और कविता में सरसता और चिन्तानुरञ्जन का विरोध नहीं महत्त्वपूर्ण कार्य किया। इस देश की संस्कृति भोगप्रधान करते । हां, जिन कवियों को सरसता और मनोरंजन निम्न नहीं है फिर भी कवियों में इंद्रियों के भोगों से परिपूर्ण कोटि के अश्लील वर्णनों में ही दृष्टिगोचर होते हैं उनका साहित्य-सृजन की प्रवृत्ति (उस समय) बढ़ रही थी। ही कवि ने विरोध किया है तथा उन्हें ही असमर्थ एवं 'सुन्दरी' सुरा और स्वर्णमय रीति युग में कवि अपनी कुत्सित कवि माना है। समर्थ एवं प्रतिभावान कवि जो कविता का स्वर और मिलाने लगे थे। 'कवि' वह जो देश सरस्वती का सच्चा उपासक है ऐसी धारणा को कभी के चारित्र और संस्कृति को अपनी कविता से सुदृढ़ बनाता प्रश्रय न देगा। स्पष्ट है कि बनारसीदास जी ने कविता है,- इस अपने उदात्त कर्म को कवि समुदाय विस्तृत कर के क्षेत्र में भी एक उज्ज्वल मर्यादा और व्यवस्था के लिए चुका था। सुन्दरियों के अंग-प्रत्यंगों और हाव-भावों क्रान्तिकारी एवं प्रादर्श सांस्कृतिक अभ्युत्थान का सुधाका कामुकतापूर्ण वर्णन कविगण राजामों के दरबारों में सन्देश दिया है। करने लगे थे। कविता प्रायः भौतिक मांसल हो चुकी थी। अंत में निष्कर्ष में हम कह सकते है कि कविवर बनारसीदास जी ने कवि-समुदाय की इस मार्गभ्रष्टता और बनारसीदास का सम्पूर्ण चिन्तन समाजवादी धरातल उत्तरदायित्व-हीन प्रवृत्ति की कटु-पालोचना की तथा का था, समन्वयात्मक था, “वसुधैव कुटुम्बकम्'-का वास्तविक कवि-कर्म (ज्ञातव्य) का मादर्श स्वयं प्रस्तुत था। वे किसी वर्ग, सम्प्रदाय या जाति-विशेष के न होकर किया। बनारसीदास जी ने कवि को सत्य का ही प्रचा- मानव मात्र के अपने थे। उनकी कृतियों में भारतीय रक एवं व्याख्याता माना है। सच्ची प्रतिभा द्वारा सत्य संस्कृति के पुनर्जागरण और नवनिर्माण का जो स्वर हैका चित्रण अत्यन्त रोचक एवं लालित्यमय सर्वथा सम्भव सन्देश है, वह हमें अस्थिरता के विषम क्षणों में सदैव बल है। असमर्थ पौर निम्नकोटि के कवि ही सरसता को ' देता रहेगा। इन्द्रिय भोगों और अश्लील वर्णनों में खोजते हैं। ऐसे