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समय और हम
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से नहीं है कि मन के भुलावों में उड़कर हमने अपने को और उन्हें लौटने की-सोचने की ताव नहीं है। अन्यथा ऊंचा मान लिया है और उस मन को वहीं समर्पित करने सिद्ध है कि उन्नति का रूप एकांगी रहा है और व्यक्ति की जरूरत से बेखबर हो रहे हैं । ईश्वर से प्रात्मार्पण की के प्राधे मंश को छोड़ गया है। मस्तिष्क प्रखर बना है, उसी गहरी अावश्यकता की पूर्ति होती है। मानव की वह हृदय सूखने को अलग रह गया है। धर्म हृदय का विषय आवश्यकता आज अधूरी है, अतृप्त है और उन्नति के मद है और ईश्वर उस हृदय की मांग को भरता है। में उसको सहसा और हठात् भुलाया जाता है। यन्त्र घुमा- प्रास्तिक का मावश्यक लक्षण नम्रता और निरहंकारता धार पैदा कर रहा है और इस तरह उत्पन्न धन की है। विज्ञान प्रथवा यन्त्र-ज्ञान की उपासना ने जिनको बहुतायत हमारे सम्पन्न वर्ग को बहाये लिये जा रही है, यह ऋजुता दी, स्वार्पण-भाव दिया, उन्हें तो प्रास्तिक फुर्सत नहीं है कि अपने भीतर के गहरे प्रभाव पर निगाह ही कहना चाहिए । क्योंकि उपासना की वेदी वहां शून्य डाल सके, शायद यह करते डर भी लगता है। इस बाढ़ नहीं है, उस पर कुछ अवश्य विराजमान है, जिसके समक्ष में उन्नति अपने को उन्नत करती हुई अन्त में युद्ध में या वे नत-मस्तक हैं। नत-मस्तकता का यह प्रसाद उस क्षेत्र फूटी है और लोग घबरा गये हैं । संशय शायद मन में उठ में विरले ही पाते हैं। जो उस प्रसाद से वंचित हैं, और गया है, लेकिन उन्नति का वेग अब भी है और शस्त्रास्त्र अधिकांश वंचित हैं, उन्हें मास्तिक कहने से शब्द पर जोर की धड़ाधड़ तैयारियां हो रही हैं, किन्तु विज्ञान के उत्कर्ष पड़ता है। ईश्वर का एक रूप नहीं है, सब रूप उसी के के सहारे हम वहां आ गये है, जहाँ आगे राह बन्द दिखाई हैं। वृक्ष में, पत्थर में, जब उसे पूजा जाता है तो ज्ञानदेती है। उस वेग में एक कदम बढ़ा कि सर्वनाश स्पष्ट विज्ञान के निर्मित से क्यों नहीं पूजा जा सकता? प्रश्न है। इससे सोचने वालों के मन डिग गये हैं और वहां नमन का, प्रत्यर्पण का है । बौद्धिक उपासना में से वह गम्भीर मंथन मचा है । सिर्फ 'करने-धरने' वाले व्यस्त हैं आवश्यकता पूरी नहीं होती, ऐसा देखने में आता है।
पद
चेतन सुमति सखी मिल । दोनों खेलो प्रीतम होरी जी ॥टेक।। समकित व्रत को चौक वणावी। समता नीर भरावो जी॥ क्रोध मान को शीघ्र हटाभो। मिय्या दोष भगावो जी ॥१॥ म्यान ध्यान की ल्यो पिचकारी । तो खोटा भाव छुड़ावो जी।। पाठ करम को चूरण करि के। तो कुमति गुलाल उड़ावो जी ॥२॥ जीवदया का गीत राग सुणि। संजम भाव बधावो जी ।। वाजा सत्य वचन थे बोलो । तो केवल वाणी गावो जी ॥३॥ दीन सील तो मेवा कीज्यो । तपस्या करो मिठाई जी। 'देवा ब्रह्म' या रति पाई छ । तौ मन वच काया जोड़ी जी ॥४॥