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नन्दि के श्रुतावतार में मिलता है। उक्त मुनि- सम्मेलन नहीं हुआ था, यह सुनिश्चित है। अतः घवला टीका में प्रयुक्त 'महिमाए' शब्द का जो अर्थ 'महिमा नाम की नगरी' किया गया है वह संगत नही जान पड़ता । पूर्वापर कथन क्रम को देखते हुए वैसा अर्थ फलित भी नहीं होता । वहाँ नगरी अर्थ करने पर वीरसेनाचार्य द्वारा नीचे दिये हुएअन्धविसय-वेणायडादो' वाक्यों के साथ सामंजस्य ठीक नही बैठता, और उसका जो अर्थ भापाटीका में किया गया है कि - 'मान्ध्र देश में बहने वाली वेणा नदी के तट से वह संगत नहीं है। क्योंकि उसमें 'अन्धविसय' वाक्य साफ तौर पर बतला रहा है कि वेणातटपुर एक नगर का नाम था । श्रद्धेय मुख्तार साहब ने धवला टीका के उस वाक्य का अर्थ अपने 'बुतावतारकथा' नामक तेल मे 'अन्ध्रदेश के वेणातट नगर से' किया है, जो संगत है ।
अनेकान्त
अनेक विद्वानों ने 'महिमाए' का महिमा नगरी घ किया है । उन विद्वानों में डा० हीरालाल जी, पं० जुगलकिशोर जी और डा ज्योतिप्रसाद जी आदि है डा० हीरालाल जी ने धवला के अतिरिक्त 'गिरिनगर की चन्द्रगुफा' नाम के लेख में 'महिमा नगरी' अर्थ किया है। (देखो, अनेकात वर्ष ५, किरण १, २) और मुख्तार साहब ने 'थुतावतार कथा' नाम के लेख मे महिमा नगरी धर्म किया है" जो उस समय महिमा नगरी में सम्मिलित हुए", यहाँ उन्होंने महिमा शब्द पर टिप्पण देते हुए स्थलकोष के बाधार पर 'महिमानगढ़' नामक गाव को महिमा नगरी होने की सम्भावना भी व्यक्त की है, जिसे उक्त कोष में सतारा जिले का एक गाँव बतलाया गया है ।"
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दक्षिण भारत में ऐसे कई नगर थे, जो उस काल में नदियों के किनारे बसे हुए थे। प्राचार्य हरिषेण ने ( वि० सं० २८९ ) अपने बृहत्कथाकोश में इस नगर का 'वेणातटपुर' नाम से ही उल्लेख किया है—
दक्षिणापथदेशेऽस्ति विण्या नाम महानदी ।
तत्त लोकविख्यातं विम्यातटपुरं पुरम् ।। (पृष्ठ १५० )
डा० ज्योतिप्रसादजी ने भी अपने 'भारतीय इतिहास; एक दृष्टि' नामके ग्रंथ में भी पृष्ठ ११७ में महिमा नगरी लिखा है जो अभी-अभी भारतीय ज्ञानपीठ काशी से प्रका शित हुआ है जैसा कि उनके निम्न वाक्य से प्रकट है :
" सन् ६६ ई० में उन्होंने महिमा नगरी में एक महान मुनिसम्मेलन किया था ।" इससे स्पष्ट है कि विद्वान लोग अब भी उक्त गलत अर्थ को बराबर दुहरा रहे हैं । उस पर जरा भी गहराई से विचार नहीं करते ।
१. देखो, जैन सिद्धान्त भास्कर भा० ३ किरण ४ ।
उदाहरण के लिये 'रम्यातटपुर' को ही ले लीजिए, इस नगर का उल्लेख ईसा की ७वी शताब्दी के आचार्य जटासिनन्दि ने अपने वरांगचरित के प्रथम सर्ग के ३२वें - ३३वें पदों में किया है।
"तस्यास्तु दक्षिणतटे समभूमिभागे
रम्यातटं पुरमभूद् भुवि विश्रुतं तत् ॥ ३२ "रम्यानदीतटसमीपसमुद्भवत्वात्
रम्यातटं जगति तस्य हि नाम रूढम् ।। " ३३
इसी तरह खान देश मे प्रसिद्ध 'नन्दीतट' नाम का नगर है जो वर्तमान में 'नांदेड़' कहलाता है । श्राज भी भन्डी होने के कारण वह व्यापार का स्थल बना हुआ है । इमी ग्यान से काष्ठाराम के 'नन्दीतट गच्छ का उद्गम हुआ है।
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धवला के अनुवादकों और सम्पादकों ने इन्द्रनंदी के श्रुतावतार के वाक्यों को पाद-टिप्पण में उद्धृत करके भी वीरसेनाचार्य के वाक्यों का गलत किया है इन्द्रनन्दि के श्रुतावतार के श्लोक नं० १०६ का पाठ तत्त्वा नुशासनादिसंग्रह मे देशेन्द्र (अ) देशनामनि वेगाकतटीपुरे महामहिमा । समुदितमुनीन्" इस प्रकार छपा है । यहाँ महामहिमा के आगे पूर्णविराम चिन्ह (1) न देकर समास द्योतक चिन्ह (-) हाईफन देना चाहिये था, तब उक्त वाक्य का अर्थ प्रारभ देश के वेणातटपुर में हो रही महा पूजा में सम्मिलित हुए मुनियों के पास लेख भेजा – ऐसा होगा और यही अर्थ वहाँ विवक्षित है। टीकाकारों को अर्थ करते समय पूर्वापर की संगति का ध्यान रखना जरूरी है उससे फिर ऐसी भूल-भ्रांतियों को स्थान नहीं मिलता ।
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२. यह नगर बम्बई प्रान्त में भी रहा है ।