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काष्ठासंघ के लाटबागड़ गण की गुर्वावली
ले०-श्री परमानन्द शास्त्री
काष्ठासंघ के उद्गम के समय-सम्बन्ध में विवाद हो उसके आस-पास के स्थानों में और मध्यभारत में ग्वालियर सकता है, परन्तु काष्ठासघ 'काष्ठा' नामक स्थान से के पासवर्ती इलाकों में भी रहा है । इस संघ का सम्बन्ध निकला, इमके मानने में किसी को विवाद नहीं हो सकता पुन्नाटसंघ से भी रहा प्रतीत होता है। पर उसके संबन्ध यह 'काप्ठा' स्थान दिल्ली के समीपवर्ती है।' काष्ठासंघ में विशेप जानकारी नहीं हो सकी। का नामोल्लेख करने वाली अनेक ग्रंथ-प्रशस्तियां, लिपि- प्रस्तुत गुर्वावली में ६८३ वर्ष की श्रुतपरम्परा की प्रशस्तियाँ और मूर्तिलेख मेरी नोट-बुक में दर्ज है। उनमें गणना के अनन्तर चार भारतीय प्राचार्यों के नामों का सबसे पुराना उल्लेख सं० ११५२ का दूब-कुण्ड के स्तम्भ- उल्लेख किया गया है। जिनका नाम श्रुतपरम्परा के विद्वानों लेख में मिलता है। इससे पूर्व का कोई लेख मेरे देखने में में विशेष ख्याति प्राप्त था, और वे अपनी खास विशेनहीं पाया। मूति-लेखों का संकलन हो जाने पर प्राचीन षताओं को लिए हए होने के कारण पारातीय कहलाते थे' लेख मिलना संभव है। इस संव की चार शाखाओं का इनके पश्चात् अर्हबली, भद्रबाह, धरसेन, भूतबली प्रार उल्लेख प्रथम लेख में (अनेकान्त की गत दूसरी किरण में)
पुष्पदन्त का नाम दिया है। और उसके बाद अन्य प्राचार्यों किया गया है, जिसका सम्बन्ध माथुरगच्छ से था, इस के नामों का उल्लेख हुआ है। गर्वावली का सम्बन्ध लाडबागड़ गण से है। बागड़संघ यहाँ यह बात खास तौर से विचारणीय है कि प्रस्तुत लाडबागड़ और बागड़ इन दो भेदों में विभक्त रहा है। गुर्वावली जब लाडबागड गण की है तब उसमें मुख्यता से लाडबागडसंघ के विद्वान जयसेन ने अपने धर्मरत्नाकर उन्हीं संघ वालों का ग्रहण होना चाहिए था। परन्तु इसके (सं० १०५५) में अपने संघ का सम्बन्ध भगवान महावीर रचयिता प्रतापकीति ने लाडबागड़सघ के कई सुप्रसिद्ध के गणधर मेतार्य के गाथ जोड़ा है। कुछ भी हो पर विद्वानो को छोड़ दिया है और अन्य विशिष्ट प्राचार्यों के यह संघ पुराना अवश्य है। इसका संस्कृत रूप लाटवर्गट ममल्लेख के माध पनाdis है। कवि श्रीचन्द ने सं० १०७७ और सं० १०८० में अपने का और देवसघ के विद्वान समन्तभद्र अकलंकदेव आदि ग्रंथों में इसका उल्लेख किया है। इससे यह सघ १० वीं विभिन्न सघों के प्राचार्यों का उल्लेख किया है । जिसका शताब्दी से भी पूर्व का जान पड़ता है। पहले इस संघ में कारण या तो उनके प्रति बहुमान प्रदर्शन करना है या अनेक विद्वान प्राचार्य हुए है। उनसे इस संघ का प्रभाव अपने गण में गौरव लाने की भावना अन्तर्निहित रही है। अच्छा रहा प्रतीत होता है । इसका सम्बन्ध गुजरात राज- इन्ही प्रतापकीर्ति की एक गद्य गुर्वावली (पट्टावली) भी स्थान में तो रहा ही है किन्तु बाद में मालवा में धारा और उपलब्ध है जिसका फुटनोट में उल्लेख किया गया है, उसमें
और इसमें साम्य भी अधिक पाया जाता है । गुर्वावली में १. दिल्ली के उत्तर में जमुना नदी के किनारे 'काष्ठा
निम्न प्राचार्यों के नाम दिये हुए है : नाम की एक नगरी थी, जिस पर टांकवंश के राजा मदन
१. अहंबली, भद्रबाहु, धरसेन, भूतबली, पुष्पदन्त, समंत पाल की आम्नाय में पेदिभट्ट के पुत्र विश्वेश्वर ने 'मदन
भद्र, सिद्धसेन, वज्रसूरि, महासेन, रविषेण, कुमारसेन, पारिजात' नामका निबन्ध १४ वीं शताब्दी के शेषभाग
प्रभाचन्द्र, अकलंक, वीरसेन, अमितसेन । में लिखा था। ऐतिहासिक विद्वान अोझा जी के अनुसार ... वहाँ नाग वंशियों की एक छोटी शाखा का राज्य था। ३. विनयधरः श्रीदत्तः शिवदत्तोऽन्योऽहंदत्तनामैते ।
२. देखो जैन ग्रंथप्रशस्ति संग्रह में श्रीचन्द के पुराणसार पारातीया यतयस्ततोऽभवन्नङ्गपूर्वदेशधराः ।।८४॥ और पद्मचरितटिप्पण की प्रशस्ति ।
इन्द्रनन्दिश्रुतावतार