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काष्ठासंघ के लालबागर की गण गुर्वावली
१३७ इस विवेचन पर से मैं इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि द्वात्रिशिकाओं के रचयिता थे। और सिद्धसेन दिवाकर अहंबली धरसेन पुष्पदन्त और भूतबली ये चारों मान्य के नाम से लोक में प्रसिद्ध थे। इनका समय विक्रम की प्राचार्य सम-सामयिक थे। भले ही इनमें पायु-गत ज्येष्ठत्व- पांचवीं शताब्दी माना जाता है। कनिष्ठत्व रहा हो। पुष्पदन्त और भूतबली के दीक्षागुरु बजरि-वे ही ज्ञात होते हैं, जो दर्शनशास्त्र के अर्हवली थे और विद्यागुरु धरसेन । जिसका समर्थन अच्छे विद्वान थे इनका लिखा हुमा प्रमाण ग्रन्थ प्रसिद्ध था। 'जनशिलालेखसंग्रह' के लेख नं० १०५ से होता है। जो अब उपलब्ध नहीं है। अनेक ग्रन्थकारों ने इनका
प्राकृत पट्टावली के अनुसार धरसेन का समय विक्रम उल्लेख किया है । भ० प्रतापकीति ने अपनी दूसरी गद्यपट्टा की दूसरी शताब्दी का पूर्वार्ध होता है। परन्तु यह भी वली में लिखा है कि इन्होंने सौराष्ट्रदेश में प्रसिद्ध चण्डिका अर्हद्बल्याचार्य के समकालीन होने से विक्रम की पहली के मन्दिर में पांच सौ भैसों की बलि को रोका था।' दूसरी शताब्दी के विद्वान होने चाहिए। इनका पट्टकाल इससे ये एक प्रभावक विद्वान हुए जान पड़ते हैं। १६ वर्ष बतलाया गया है । (देखो, धवला पु० १ पृ० २६ ~ महासेन-ये मुनि लाडबागड संघ के पूर्णचन्द्र थे, जो में प्रकाशित प्रा० पट्टावली)
प्राचार्य जयसेन के प्रशिष्य और गुणाकरसेन सूरि के शिष्य ___ भतवली पुष्पदन्त-गुर्वावली में भूतबली का नाम थे, सिद्धान्तज्ञ, वादी, वाग्मी और कवि थे। परमार पहले और पुष्पदन्त का नाम बाद में दिया है किन्तु इनमें वंशी राजा मुज के द्वारा पूजित थे। इन्होंने हरिहर भद्र पुष्पदन्त ज्येष्ठ और भूतबली कनिष्ठ ज्ञात होते है। पुष्पदन्त आदि वादियों को जीता था।' इनका समय १०२५ से ने ही सबसे पहले पटखण्डागम के द्रव्यप्रमाणानगम से पहले १०५५ के मध्य में होना चाहिये, क्योंकि १०५० और के सूत्र रचे और जिनपालित को दीक्षित कर एवं मत्रों को १०५५ के मध्यवर्ती किसी ममय तेलपदेव ने राजा मज का पढ़ाकर भूतबली के पाम भेजा । और भूतबली ने पूरे छह वध किया था। इसलिए इनका समय विकी ११वीं खण्डों की रचना कर उसे पुष्पदन्त के पास पुनः भेजा शताब्दी का मध्य काल है। इनकी एकमात्र कृति प्रद्यम्नथा । ये दोनों ही उम युग के प्रतिभा-सम्पन्न विद्वान थे। चरित उपलब्ध है, जो माणिकचन्द्र दि० जैन ग्रन्थमाला में इनका समय विक्रम की द्वितीय शताब्दी है। ये दोनो ही छप गया है । महासेन नाम के दो विद्वान और भी हुए है। आचार्य अहंबली के शिष्य थे, और उनके द्वारा प्रेषित रविषेण-अर्हन्मुनि के प्रशिष्य और लक्ष्मणसेन के होकर ही वे आचार्य धरसेन के पास आये थे। धरसेन ने शिष्य थे। अर्हन्मुनि के गुरु दिवाकर और उनके गुरु इन्द्र उन्हें महाकर्मप्रकृति प्राभृत पढ़ा कर विदा किया था। थे। इन्होने अपना पद्मचरित वीर नि० स० १२०७ (वि. इनके सम्बन्ध में फिर किसी समय विशेष प्रकाश डाला सं० ७३३) मे अनुत्तरवादि-कीर्तिधरानुमोदित लेख के जायगा ।
प्राधार से बनाया था। यह वि० की ८ वीं शताब्दी के समन्तभद्र-योगीन्द्र, महावादि, आज्ञासिद्ध, वचन
विद्वान थे। सिद्ध और उस काल के सबसे वरिष्ठ विद्वान थे। बड़े २. तदन्वये (सिद्धसेनाचार्यन्वये) सौराष्ट्र देश प्रसिद्ध तपस्वी, जितेन्द्रिय, दर्शनशास्त्र के प्रकाण्ड पण्डित और चण्डिकायतने पंचशतमहिषमरगनिवारण श्रीवञसेनाप्राद्यस्तुतिकार रूप से लोक में प्रसिद्ध थे। इनका समय चार्याणाम् ।
गुच्छक नं०६ विक्रम की दूसरी-तीसरी शताब्दी माना जाता है।
३. देखो, गद्य पट्टावली पंचायती मन्दिर दिल्ली। सिद्धसेन- इस नाम के अनेक विद्वान हो गए है,
गुच्छ नं०६ परन्तु प्रस्तुत सिद्धसेन वे ही ज्ञात होते हैं, जो दर्शनशास्त्र ४. प्रथम कुमारसेन वे हैं, जिनका उल्लेख पुन्नाटमंघीय के प्रकाण्ड पंडित थे। मम्मनितकं और कुछ विशिष्ट जिनसेन ने किया है और उनके यश को प्रभाचन्द्र के
१. देखो जैनलेखसंग्रह भा० १ लेख नं० १०५ । समान उज्ज्वल और समुद्र पर्यन्त विस्तृत बतलाया है।