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१४.
धमेकान्त
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विजयसेन – इस नाम के तीन विद्वानों का उल्लेख मेरे इतिहास - रजिस्टर में दर्ज है। उनमें एक विजयसेन माधवसेन के शिष्य थे । दूसरे विजयसेन भट्टारक सोमकीर्ति के पट्टधर थे जो काष्ठासंच स्थित नन्दीतर गच्छके रामसेना न्वयी भट्टारक भीमसेन के शिष्य और लक्ष्मीसेन के प्रशिष्य थे। जिनके तीन ग्रंथों की प्रशस्तियों का परिचय जैन ग्रंथ प्रशस्तिसंग्रह में दिया गया है। इनका समय वि० की १६ वीं शताब्दी है। तीसरे लाडवागढ संघ के विद्वान विजयसेन भट्टारक अनन्तकीर्ति के शिष्य थे। गुर्वावलीकार को यही विवक्षित जान पड़ते हैं; क्योंकि गद्यपट्टावली में उन्होंने विजयसेन को वाराणसी में पांगुल हरिचन्द की राजसभा में चन्द्रतपस्वी को पराजित करने वाला सूचित किया है।
पद्मसेन चारित्रसेन के शिष्य थे। इनके शिष्य त्रिभुवनकीर्ति ने एक मूर्ति प्रतिष्ठा वि० सं० १३६० में कराई थी उससे जान पड़ता है कि इनका समय विक्रम सं० १३६५ के लगभग होना चाहिए ।
त्रिभुवनकीति — यह काष्ठासंघ लाट बाग गण के विद्वान और पद्मसेन के शिष्य थे। सं० १३६० मे माघ सुदी १३ सोमवार के दिन इनके उपदेश से किसी हूमड़ वंशी धावक धाविका ने पात्मकल्याणार्थ प्रतिष्ठा कराई थी। उससे इनका समय विक्रम की १४वीं शताब्दी का पूर्वार्ध है ।
१. प्रमाण नम निक्षेपेत्वाभासादिभिः परैः । विजेता वादिवृन्दस्य मेनः केशवपूर्वकः ॥
- मूलाचार प्रशस्ति अनेकान्त, वर्ष १३ कि. ४ । २. तत्पट्टे विजयसेनभट्टारक: वाराणस्यां पांगुल हरिचन्द्रराजान प्रबोध्य तस्यैव सभायामनेकशिष्य समूहसमन्वित चंद्रतपस्विन विजित्य महावादीति नाम प्रकटीचकार ।
वर्ष १५
धर्मकीति इन्होंने वि० सं० १४३१ में वैशाख हुनला अक्षय तृतीया बुधवार के दिन केशरियाजी तीर्थक्षेत्र पर विमलनाथ का मन्दिर निर्माण कराया था। इनका समय १५वीं शताब्दी है । 'इनके तीन शिष्य हुए हेमकीर्ति, मलयकीर्ति और सहस्रकीति । इन तीनों का गुजरात प्रदेश में विहार होता था। दिल्ली के शाह फेरू ने सं० १४९३ में घृतपंचमी व्रत के उद्यापन के निमित्त मूलाचार को प्रति लिखवाई थी। वे उसे धर्मकीर्ति को भेंट करना चाहने थे, परन्तु उनका स्वर्गवास हो जाने के कारण बाद में यह भ० मलकीति को भेंट की गई ।
मलयकौति इनका समय विक्रम को १२वी शताब्दी का उत्तरार्ध है।
नरेन्द्रकीर्ति - यह मलयकीर्ति के पट्टशिष्य थे । 'भट्टारक सम्प्रदाय' के अनुसार इन्होंने कलबुर्गा के फिरोजशाह की सभा में समस्यापूर्ति कर जिनमंदिर के जीर्णोद्धार करने अनुज्ञा प्राप्त की थी ।
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पट्टावली दिल्ली पंचायती मंदिर गुच्छक ६ ३. सं० १३९० वर्षे माघ सुदी १३ सोमे श्री काष्ठा संघे श्री लाटबागडगणे श्रीमत् त्रिभुवनकीर्ति गुरूपदेशेन बड़ज्ञातीय व्या० बाहड भा० लाछी सुत व्या० खीमा भार्या राजू देवी श्रेयोर्थ सुत दिवा भा० सम्भवदेवी नित्यं प्रणम ति । जैन लेख सं० भा० १ले० नं० ११३५
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प्रतापकति नरेन्द्रकीर्ति के पट्टशिष्य थे। इन्होंने [रा १८६० में देवचन्द्र के पार्श्वनाथरिन की प्रतिनि वाई थी । ये बड़े विद्वान थे, इन्होंने पाथरी नगर के केदारभट्ट की याद में पराजित किया था। इनकी प्रशंसा सूचक एक प्रशस्ति परिशिष्ट में दी गई है। जिससे इनके सम्बन्ध में विशेष बातें ज्ञात हो सकेंगी। इस गद्य पट्टावलि के कर्ता प्रस्तुत प्रतापकीति ही है।
गुर्वावली
वृषभादिवरपर्यन्तान्न वा तीर्थकृतस्त्रिग । सगणेशानहं वक्ष्ये गुरुनामावली मुदा ।। १ त्रयः केवलिन पञ्च चतुर्दशविण । क्रमेणैकादश प्राज्ञा विज्ञेया दशपूर्विणः ॥ २ पञ्च चैकादशाङ्गानां धारकाः परिकीर्तिता । प्राचाराङ्गस्य चत्वारः पञ्चधेति युगस्थित १३ मानजिनेन्द्रस्बेन्द्र भूतिः श्रुत दधौ । ततः सुधर्मा तस्माच्च जम्बूनामात्यवनी ४ १. देखो, अनेकान्त वर्ष १३ कि० ४ । २. देखो, भट्टारकसम्प्रदाय पृ० २५६ । ३. पारवनाथ चरित लिपि प्रशस्ति ।