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देख वार्तिककार ने वार्तिक बनाकर उसे पूरा किया है। किंतु उक्त प्रकरणों के देखने से यह स्पष्ट है कि हेमचन्द्र इन सब सूत्रों एवं वार्तिकों के लिए हेमचन्द्र ने एक ही सूत्र ने महाभाष्य का सम्यक् पालोचन किया था, क्योंकि पढ़ा है । अपायेऽवधिरपादानम् । सिद्ध हैम० २।२।१६। पूर्वोक्त सूत्रों एवं वार्तिकों के प्रत्याख्यान में महाभाष्यकार उन्होंने अपाय के दो भेद किये हैं
ने जिस पद्धति का अवलम्बन किया है, हेमचन्द्र ने सूत्रों के १-काय संसर्ग पूर्वक और २-बुद्धिसंसर्गपूर्वक । लाघवीकरण में ठीक उसी पद्धति का आश्रय लिया है।
इस प्रकार अधर्माज्जुगुप्सते, अधर्माद्विरमति, धर्मात्प्र- यदि हेमचन्द्र ने महाभाष्य न देखा होता, तो सम्भवतः यह माचति इत्यादि स्थलों में विवेकशील व्यक्ति बुद्धि से ही लाघव दुष्कर ही होता । उस समय पाणिनि व्याकरण की अधर्म को दुःख का हेतु समझकर उससे निवृत्त हो जाता महतो प्रतिष्ठा थी एवं उसका बहुत प्रचार था। इसमें है। नास्तिक व्यक्ति तो बुद्धि से ही धर्म को जानकर 'मैं ऐसा सन्देह नहीं कि परवर्ती प्राचार्यों नेपूर्ववर्ती प्राचार्यों का अनुनहीं करूंगा' यह निश्चय कर उससे निवृत्त होता है। सरण किया है। अतः हेमचन्द्र का ऐसा करना उचित ही निवृत्ति-गर्भ जुगुप्सा, विराम, प्रमाद अर्थ में उक्त धातुएं था। किंतु पूर्वोक्त स्थल में भाष्यकार का अनुसरण करनेपर
भी कई स्थलों पर हेमचन्द्र की स्वतन्त्र नूतन उद्भावनायें भाष्यकार पतञ्जलि ने घ्र वमपायेऽपादानम्" (पा०
भी हैं। उदाहरणार्थ-'माख्यातोपयोगे' (पा० १।४।२६) १।४।२४) इस एक सूत्र से ही पूर्वोक्त सूत्रों एवं वार्तिकों के
इस सूत्र के भाष्य का प्राचार्य ने अनुसरण नही किया है, उदाहरणों की व्याख्या करके उनका प्रत्याख्यान कर दिया
अपितु "पाख्यातर्युपयोगे” (हेम० २।२।७३) इस सूत्र का
उल्लेख कर उसकी वृत्ति भी लिख दी है। १.(क)"जुगुप्साविरामप्रमादार्थानामुपसंख्यानम्" (का. सम्भवतः प्राचार्य का यह अभिप्राय हो कि 'नटस्य वा.)-पापाज्जुगुप्सते, पापाद्विरमति धर्मात्प्रमाद्यति । शृणोति' यहां पर उपयोग की अविवक्षा रहने पर भी
(ख)"भीत्रार्थानां भयहेतुः" (पा०११४१२५)-चौरा- बुद्धिकृत अपाय की विवक्षा में पञ्चमी न हो सकेगी, इसदबिभेति, चौरात्भायते । (ग) “पराजेरसोढः” (पा० ११४ लिए यह सूत्र आवश्यक है। किन्तु अनभिधान से ही वैसी २६)-अध्ययनात्पराजयते। (घ) “वारणार्थानामीप्सितः विवक्षा नहीं हो सकती। अतः इस सूत्र का कोई विशेष (पा०१।४।२७)-य वेभ्यो वारयति । (ङ)"अन्तधौं येना- प्रयोजन नहीं ज्ञात होता । अन्यथा पूर्वोक्त सूत्रों में भी इसी दर्शनमिच्छति" (पा. १।४।२८)-मातुनिलीयते कृष्णः प्रकार की कोई कल्पना की जा सकती थी, जो प्राचार्य ने (च) जनिकर्तुः प्रकृतिः (पा० १।४।३०)-ब्रह्मणः प्रजाः नहीं की। इस पर विद्वान् लोग ही विचार करें। प्रजायन्ते । (छ) “भुवः प्रभवः” (पा० २४।३१)-हिम-
हैम शब्दानुशासन का उपजीव्य बतो गङ्गा प्रभवति (ज) पञ्चमी विभक्ते (पा० २।३।४२)
व्याकरण भाषा का नियामक होता है । यदि एक. -माथरा: पाटलिपुत्रकेभ्यः पाढ्यतराः । (झ) यतश्चाध्व- भाषा के अनेक व्याकरण हैं, तो पूर्ववर्ती व्याकरण की काल निर्माणं तत्र पञ्चमी (का० वा०)-कार्तिक्या भांति परवर्ती व्याकरणों में भी शब्दसिद्धि समान ही होती प्राग्राहयणी मासे वनाद् ग्रामो योजनं योजने वा। है। उनमें कोई नवीनता तो होती नहीं, केवल रचना पद्धति
२. अपायश्च कायसंसर्गपूर्वको बुद्धिसंसर्गपूर्वको विभाग में सरलता या कठिनता, सर्वदेशीयता या एकदेशीयता उच्यते, तेन
होती है, जो प्रत्येक व्याकरण में पूर्णतः या अंशतः पाई "बुद्धया समीहितैकत्वान् पञ्चालान् कुरुभिर्यदा।
जाती है । यद्यपि सूत्र और वृत्ति आदि के पर्यालोचन से बुद्धया विभजते वक्ता तदापायः प्रतीयते ॥" -इत्यत्रापादनत्वं भवति ।......देखो हैम० स०२।२।१९ यह प्रतीत होता है कि' शाकटायन व्याकरण ही इसका
३. जुगुप्साविरामप्रमादार्थानामुपसंख्यानम् कर्तव्यम्... १. शाकटायन अपरनाम पाल्यकीर्ति नामक दि. जैन [देखो, महाभाष्य १।४।२४ (पा.सू.) से ११४३१ (पाणिनि प्राचार्य का चार अध्यायों में विभक्त यह व्याकरण ग्रन्थ सू.)तक]
अनेक टीका वृत्तियों से युक्त पाया जाता है।