________________
सिद्धहेमचन्द्र-शब्दानुशासन
श्री कालिकाप्रसाद शुक्ल, एम० ए०, व्याकरणाचार्य
यह तो सबको विदित ही है कि अनेक प्रतिभासम्पन्न ग्रन्थ के अनुसार सिद्धराज मालव देश को जीतकर अपनी वैयाकरणों ने शताब्दियों तक अत्यन्त सुव्यवस्थित पद्धति से राजधानी पाटन लौटते समय धारा नगरी की सारी सम्पत्ति अनेक संस्कृत व्याकरण शास्त्रों का निर्माण किया । उन के साथ ही भोजराज के ग्रन्थ रत्नों को ले पाए। उसी व्याकरण शास्त्रों के बल से संस्कृत भाषा आज भी अमर समय श्री हेमचन्द्राचार्य ने महाराज को बड़ा ही उदात्त एवं है। केवक इस देश के ही नहीं, विदेश के विद्वानों ने भी भावपूर्ण आशीर्वाद दिया।' उस आशीर्वाद को भादर पूर्वक आज के अपने भाषाशास्त्रों मे उन व्याकरणों का उपयोग स्वीकार करते हुए महाराज सिद्धराज ने प्राचार्य से पुनः किया है, यह किसी से छिपा नहीं है । व्यवस्थित व्याकरण पधारने की प्रार्थना की। शास्त्र के अभाव से ही अनेक भाषायें नष्ट हो गईं अथवा
एक समय अवन्ती से लाई हुई पुस्तकों का निरीक्षण वे आज भी दुर्बोध बनी हुई हैं। उन व्याकरणों की ही
करते हुए एक पुस्तक के सम्बन्ध में महाराज ने पूछा-यह कृपा से, संस्कृत वाङ्मय सैकड़ों आघात-प्रत्याघातों को
कौनसी पुस्तक है। ग्रन्थपाल ने उत्तर में कहा कि यह भोज सहन करते हुए भी, आज भी सुगठित एवं स्थिर करने के
निर्मित व्याकरण की पुस्तक है, विशेष रूप से यह भी कहा के लिए आजकल उपलब्ध व्यवस्थित व्याकरणों में एक
कि मालवाधीश परिनिष्ठित विद्वान.थे तथा उन्होंने व्याकरण सिद्ध हेम चन्द्र शब्दानुशासन' भी है, जिसके सम्बन्ध में यहां
तर्क आदि अनेक शास्त्रों की पुस्तकें लिखी हैं। यह सुन कुछ विचार किया जाता है।
कर सिद्धराज दुखी हुए और वोले-क्या हमारे यहां शास्त्रनिर्माण का उद्देश्य
निर्माण-पद्धति नहीं है? क्या सम्पूर्ण गुजरात देश में कोई सर्वाङ्गपूर्ण पाणिनीय व्याकरण के रहने पर भी विद्या- पण्डित नहीं है ? तद सभी राजपण्डितों ने हेमचन्द्राचार्य नुरागी श्री भोजराजा की सी प्रख्यात कीति प्राप्त करने की ओर देखा। महाराज ने इस अवसर को हाथ से नही जाने रूप गुर्जर नरेश श्री सिद्धराज की महत्वाकांक्षा की पूर्ति ही दिया और प्राचार्य से ससम्मान प्रार्थना की कि "मुनिवर ! इस ग्रन्थ के निर्माण का उद्देश्य है, यह इतिहास के पर्यालोचन एक नवीन व्याकरणशास्त्र रचकर हमारी इच्छा पूरी से स्पष्ट है । इस तथ्य को प्रकट करने वाले, जैनाचार्यों के कीजिए । आपके अतिरिक्त दूसरा कोई भी इस कार्य में अनेक ग्रन्थ है। जिनमें ऐतिहासिक दृष्टि से थी प्रभाचन्द्र समर्थ नही है । इस समय हमारे राज्य में प्रति संक्षिप्त सूरि विरचित 'प्रभावक चरित्र,' अत्यन्त प्रामाणिक है इस कलाप-व्याकरण ही का प्रचार है। उसके बार-बार परि१-प्रभावक चरित्र के सम्बन्ध में इसके सम्पादक ने
शीलन से भी यथोचित शब्द-व्युत्पत्ति नहीं होती। पाणिलिखा है--"रचना की दृष्टि से भी यह ग्रन्थ बड़ा महत्त्व- नीय व्याकरण वेदाङ्ग है । अतः ब्राह्मण लोग इसे औरों को पूर्ण है। इसकी भाषा प्रवाहपूर्ण तथा प्रभावशाली है। नही पढ़ाते । अतः सबके कल्याण के लिए नवीन व्याकरण वर्णन सुसम्बद्ध तथा परिमित है । कही भी अत्युक्ति एव का निर्माण कीजिए । इससे मेरी तथा प्रापकी ख्याति असम्भवोक्ति नहीं है। समग्र संस्कृत साहित्य में महाकवियों एवं प्रभावशाली धर्माचार्यो का ऐतिहासिक तथ्यपूर्ण ग्रन्थ .
होगी।" दूसरा नहीं है।" इस प्रकार का अपना प्राशय प्रकट करते
१-"भूमि काम गवि ! स्वगोमयरसैरासिञ्च रलाकराः । हुए सम्पादक ने प्रभावक चरित्र' को इतिहास ग्रन्थ स्वीकार
मुक्तास्वस्तिकमातनुध्वमुडुप ! स्त्वं पूर्ण कुम्भोभव ॥ किया है । [रचना काल-वि० सं० १३३४ । सिन्धी जन ग्रन्थमाला ग्रंथाङ्क १३, प्रभावक चरित्र की प्रस्तावना धृत्वा कल्पतरोदलानिसरलैदिग्वारणास्तोरणा
न्याधत्त स्वकरविजित्य जगतीं नन्वेति सिद्धाधिपः ।