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किरण ३
मंगलोत्तमशरण पाठ (१३) सागारधर्मामृत (प्राशाधर कृत) अध्याय २
चतुः समाश्रयाण्येव स्मरन्मोक्षं प्रपद्यते ॥४२॥ जिनानिव यजन्मिद्धान माधन धर्म च नंदति । नोट-श्लोक ४२ की स्वोपज्ञटीका में पूरा और शुद्ध
तेऽपि लोकोत्तमास्तद्वच्छरणं मंगलं च यत् ।।४२ । पत्तारिदण्डक पाठ दिया हुआ है जैसा कि हम ऊपर लिख (१४) जिनयज्ञकल्प (पाशाधर कृत) अध्याय ५
माये हैं। ये मंगललोकोतमशरणात्मानः समृद्ध महिमानः ।
अब इस पाठ के कुछ पदों पर नीचे किंचित् ज्ञातव्य पांतु जगत्यर्हत्मिद्धमाधुकेवल्युपज्ञधर्मास्ते ।।६।।
प्रस्तुत किया जाता है :
१. आइरियाणं की जगह पायरियाणं, लोगुत्तमा की (१५) जिनयज्ञकला (आशाधर कृत) अध्याय २
जगह लोगोत्तमा और पवज्जामि की जगह पव्वज्जामि तेऽमी पंच जिनेन्द्रसिद्धगणभत्सिद्धांतदिक्माधवो ।
पाठ भी पाया जाता है। मांगल्यं भुवनोत्तमाश्च शरणं तद्वज्जिनोक्तो वृपः ।। अस्माभि. परिपूज्य भक्तिभरतः पूर्णाऱ्यामापादिताः ।
२. 'साहु, एकवचन है' और 'साहू' बहुवचन है (प्राकृत में)।
३. चत्तारि सरणं पवज्जामि में पवज्जामि का संस्कृत संघस्य क्षितिपस्य देशपुरयोरग्यासतां शांतये ।।२१।।
रूपान्तर प्रायः विद्वान् 'प्रपद्ये करते हैं और अर्थ इस इन सब प्रमाणों से यह भलीभॉति स्पष्ट होजाता हैं
प्रकार करते है :कि-नमस्कारमन्त्र के साथ प्राचीन समय से ही चनारि
मैं चारों की शरण को प्राप्त होता हूँ-चारों की शरण मंगलोतम शरण पाठ प्रचलित रहा है । इस तथ्य को किस अंगीकार करता हूँ किन्तु प्रभाचन्द्र ने अपनी संस्कृत टीका खबी के माथ प्रत्येक प्रमाण में ग्रथित किया गया है यह मे इसका अर्थ इस प्रकार किया है :इन प्रमाणो को ध्यान पूर्वक अध्ययन करने पर प्रत्येक
अहंदादीन् चतुर. शरणं प्रवजामि । इममे 'पन्चज्जामि पाठक को स्वय अनुभव हो जायगा ।
का अर्थ 'प्रपद्ये' न करके 'प्रव्रजामि' किया है। गमनार्थक इस विषय में श्वेताम्बर सम्प्रदाय का अभिमत भी।
'ब्रज' धातु से पहिले उत्कृष्टार्थक 'प्र' उपसर्ग लगाकर दिगम्बरवत् ही है इसके लिए ग्रथाभाव से सिर्फ एक ही
सम्भवतः यह धोतिन किया गया है कि- अन्य सबकी प्रमाण नीचे प्रस्तुत किया जाता है।
शरण में जाना छोड़कर इन चारों की ही शरण में जाता (१) योगशास्त्र (हेमवन्द्राचार्य कृत) प्रकाश ८ हूँ। वैसे 'प्रव्रजन' का अर्थ संन्यास, दीक्षा होता है। किन्तु
तथा पुण्यतम मन्त्रं जगत्रितयपावनम् । प्राकृत में गमन और संन्यास दोनों होते है देखो 'प्राकृत योगी पचपरमप्ठिनमरकारं विचिन्तयेत् ।।३।। शब्द महार्णव' और 'जैनागमशब्दसंग्रह' में -पव्वज्जा मगलोत्तमारणपदान्यव्यग्रमानम ।
(प्रव्रज्या) तथा पव्वय (प्रव्रज) शब्द ।
पद मूरति श्री जिनदेव की।
मेरे नैनन माझि वसी जी ॥टेक।। अदभुत रूप अनोपम है छवि ।
राग दोष न तनक सी ॥१॥ कोटि मदन वारूँ या छवि पर ।
निरखि निरखि आनन्द झर वरसी। जगजीवन प्रभु की सुनि वाणी ।
सुरति मुकति मगदरसी ॥२॥