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नगर, खेट, कर्वट, मटम्ब और पत्तन आदि की परिभाषा
ले० डॉ० दशरथ शर्मा
अनेकान्त के जून १९६२ के अङ्क में पृ० ५१ पर डा. नेमिचन्द जैन ने नगर, खेट, कर्वटादि की जो परिभाषा दी है वह हरिषेण के बृहत्कथाकोश में दी हुई परिभाषा से अंशतः भिन्न है । बृहत्कथाकोश वि० सं० २०८८ की कृति है । 'तथा चोक्तम्' शब्दों से उद्धृत और 'निगदन्ति मनीषिणः' शब्दों से निर्दिष्ट उसकी परिभाषा सं० १०८८ (सन् १०३१ ई०) से भी पर्याप्त प्राचीन रही होगी ।
बृहत्कथाकोश के इस विषय के श्लोक निम्नलिखित
है :
"ग्रामं बृहद्वृति नूनं निगदन्ति मनीषिणः । शालगोपुरसंपन्नं नगरं पौरसंकुलम् ॥१४- १४ ॥ नद्यद्विवेष्टितं खेटं वृतं कर्व टमद्रिणा । शतैः पञ्चभिराकीर्ण ग्रामाणां च मटम्बकम् ॥१९४-१५ ॥ पत्तनं रत्नसंमूर्ति सिन्धुवेलासमावृतम् । द्रोणा मुखमभिस्पष्टं सन्निवेशं नगोपरि ॥ ९४ - १६॥ तथा चोक्तम्
ग्रामोवृत्यावृतः स्यान्नगरमुरुचतुर्गोपुरोद्भासि शालं, खेटं नद्यद्रिवेष्ट्यं परिवृतमभितः कर्वटं पर्वतेन । युक्तं ग्रामैर्मटम्बं दलितदशशतैः पत्तनं रत्नयोनि-, द्रोणाख्यं सिन्धुवेलावलयितमभितो वाहनं चाद्रिरूढम् । ।।६४-१७।।
इन श्लोकों के आधार पर ग्रामादि की परिभाषा इस प्रकार होगी :
ग्राम-- डा० नेमिचन्द्र जैन के मतानुसार 'जिसके चारों ओर दोवालें रहती हैं वह ग्राम कहलाता है ।' हरिषेण के अनुसार ग्राम वह छोटी सी प्रादमियों की बस्ती है जो चारों ओर बड़ी सी बाड़ ( वृति) से घिरी हो । ग्राम के चारों ओर दीवाल नहीं होती । कौटिल्य ने सौ कुलों से पाँच सौ कुलों तक की बस्ती को ग्राम की संज्ञा दी है ।
नगर -- ग्राम में सुरक्षा के लिए केवल बाड़ होती । नगर में चारों ओर मजबूत दीवाल होती, जिसे मध्यकालीन शब्दों में हम 'शहरपनाह' कह सकते हैं। इस दीवाल में नगर में प्रवेश करने के लिए चार मुख्य दरवाजे रहते; जैन कथाएं नगरों के वर्णनों से परिपूर्ण हैं ।
सेट-नदी और पहाड़ों से वेष्टित होने के कारण पर्याप्त सुरक्षित स्थान का नाम खेट या खेटक है।
कर्वट - चारों घोर पर्वतों से घिरी बस्ती कर्वट कहलाती । कौटिल्य ने कार्बटिक संज्ञा उस स्थान विशेष को दी है जो दो सौ गाँवों के व्यापार प्रादि का केन्द्र होता (द्विशतग्राम्याः कावंटिक अर्थशास्त्र, द्वितीय अधिकरण, प्रथम अध्याय) ।
मटम्ब - डा० नेमिचन्द्र ने “नदी और पर्वतों से वेष्टित स्थान" को मटम्ब माना है। वास्तव में यह परिभाषा खेट शब्द की है। मटम्ब तो उस बस्ती विशेष की संज्ञा है जो पाँच सौ ग्रामों के व्यापार आदि का केन्द्र होता हो ।
पतन - पत्तन में रत्नों की प्राप्ति होती । अन्यत्र पत्तन का अर्थ ध्यान में रखते हुए हमें इस श्लोक का अर्थ सम्भवतः यह करना चाहिए कि पत्तन रत्न या धन के श्रागम का मुख्य स्थान था । पत्तन दो प्रकार के होते, जलपत्तन और स्थलपत्तन । कुछ टीकाकारों ने "जहाँ नौकाओं द्वारा गमन होता उसे 'पट्टन' और जहाँ नौकाओं के प्रतिरिक्त गाड़ियों और घोड़ों से भी गमन होता उसे पत्तन की संज्ञा दी है" ( पत्तनं शकटैर्गम्यं घोटकैनौभिरेव च । नोभिरेव तु यद् गम्यं पट्टनं तत्प्रचक्षते ॥ व्यवहारसूत्र पर मलयगिरि की वृत्ति, भाग ३, पृष्ठ १२७ ) । उद्धरण डा० सांडेसरा के 'जैन श्रागम साहित्य माँ गुजरात' से है ।
होलमुख डा० नेमिचन्द्र ने नदी वेष्टित ग्राम को द्रोण की संज्ञा दी है जो ठीक प्रतीत नहीं होती । कौटिल्य के समय चार सौ ग्रामों के केन्द्रीय ग्राम की द्रोणमुख संज्ञा थी । बृहत्कथाकोश के 'सिन्धु वेलावलयितमभितः' से इसकी