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___मैं प्रतिदिन दस मनुष्यों को प्रबोध देकर भगवान उस मनुष्य को उपदेश देने का क्या अधिकार है ? जो उस महावीर के पास भेजा करूंगा।'
पथपर नहीं चल सकता। यही सोचते सोचते वे धर पाये। 'मुझे स्वीकार है !'
कामकान्ता ने उनका उदास मुंह देखकर कहा-नाथ 'अब मैं तेरे यहां रहने को तैयार हूँ आज तेरी पूर्ण माज यह उदासी क्यों ? विजय हुई है।
'कामकान्ता !' याज तक मैं कितनी भूल पर था ? 'नाथ, यह मेरी विजय नहीं, प्रेम की विजय है।' मुझे यह अधिकार नहीं है कि जिस पथ पर मैं नहीं चल
सकता उस पर दूसरों को चलाऊँ।' नन्दिषेण दस आदमियों को प्रबोध देकर प्रतिदिन
'तब क्या आप दूसरों को प्रबोध नहीं देना चाहते ?' भगवान महावीर के पास भेजते रहे । उनकी वाणी में 'सो तो मैं प्रतिज्ञा कर चुका हूँ।' प्रोज था जिसे सुनकर लोगों के दिल पिघल जाते थे। दोनों बातों का पालन कैसे होगा। अपनी वक्तृत्व शक्ति के बल पर बहुत दिनों तक वे इसी
'कामकान्ता, अब मैं क्षमा चाहता हूँ। आज दसवा प्रकार भादमी भेजते रहे । एक दिन उन्हें सिर्फ नौ प्रादमी
आदमी नहीं मिल रहा है । इस लिए अपनी प्रतिज्ञा पालन हा मिल । दसवा एक सुनार था। नान्दषण न उस बहुत करने के लिए मैं स्वयं दसवां आदमी बनकर भगवान के समझाया परन्तु वह न माना। बल्कि जाते जाते वह कह पास जाता हैं। गया कि आप तो वेश्या के यहां मौज कर रहे हैं और हमें
क्या दसवाँ आदमी मैं नहीं बन सकती ?' उपदेश देते हैं-वैराग्य का।
'कामकान्ता, धर्म का मार्ग कठिन है।' ___ यह अप्रिय सत्य, नन्दिषेण के हृदय में गोली की तरह लगा। नन्दिषेण की पतितात्मा मर गई और उसमें
'पाप इसकी चिन्ता न करें।' पवित्रात्मा का जन्म हुआ। उनके हृदय में बार बार वही आज नन्दिषण ने भ० महावीर के पास दस आदमी ध्वनि गूंजने लगी। अन्त में उनने मन ही मन कहा कि न भेजे किन्तु दस आदमियों को लेकर वे स्वयं पहुंचे।
कवित्त उर को उजारौ सौ उजारी आप मातम को
परि परि जारी न्यारो देखौ नित नूर है । जीभ क्रम काय कर जी को क्रम काय कर
प्रान को न जाप कर आप महासूर है । जाके परताप माहिं देख्यो परताप नाहिं
मातम प्रवाह ज्ञान सागर सपूर है। नाही को विलोक लोकालोक को निवास
जा लोक सौ प्रतीत 'चन्द' चेतना सहूर है।