________________
तिरुपट्टिनरल (जिन काडी) को एक अन्य मुनि का माध्यात्मिक गुरु बताया गया है जो मन्दिर के मुनिवास में एक कोठरी उनको दी गई है और तिरुपट्टिकुनरम् में रहे और जिनका नाम अनन्तवीर्य दूसरी उनके गुरु चन्द्रकीति को। वामन'.था। जैन धर्मसत्ता के सम्बन्ध में अभी तक जो अनन्तवीर्य वामन की पहिचान के सम्बन्ध में हम कुछ हमें ज्ञात हो चुका है उतने मात्र से हम उपरोक्त चन्द्र- पूर्णतः अन्धकार में हैं। परन्तु हम जानते हैं कि उनका कीतिको पहिचानने में असमर्थ हैं तथा स्थानीय जैनों से काल चन्द्रकीत्ति के पश्चात् है जो ११९६ ई. के कुलोत्तुंग इस सम्बन्ध में कोई सहायता प्राप्त होनी सम्भव नहीं है। तृतीय के लेखों में आते हैं। फलतः वे चन्द्रकीत्ति से कुछ श्रवणबेलगोल में प्राप्त अन्य सूचियों से भी कोई सहा- वर्ष पश्चात् रखे जाने चाहिएं, यथा तेरहवीं शताब्दी के यता नहीं मिलती । मान्ध्र कर्नाट देश से प्राप्त जैन आचार्यों मध्य में। आन्ध्र-कर्नाट देश से प्राप्त जैन प्राचार्यों की की सूची में अवश्य एक चन्द्रकीत्ति हैं जिन्हें दो अन्य सूची के अध्ययन से भी एक अनन्तवीर्य देव का पता लगता प्राचार्यों के मध्य रखा गया है; एक कनककीतिदेव, है। जिन्हें भावनन्दि और अमरकीति माचार्य के मध्य जिनकी दानकुलपाडु के उन निसिढि शिलालेखों में से एक रखा गया है। यद्यपि यह अनन्तवीर्यदेव संभवतः हमारे में चर्चा है जो मद्रास के अजायबघर में रखे हुए हैं, और अनन्तवीर्य वामन हो सकते हैं क्योंकि इस बात को असत्य दूसरे भट्टारक जिनचन्द्र । हमारे चन्द्रकीत्ति (११६६ ई०) सिद्ध करने के लिए उनकी तिथियों में कुछ नहीं है, परन्तु
और उपरोक्त में कोई सम्बग्ध देखना उचित नहीं होगा आन्ध्र-कर्नाट सूची में तिरुपरुट्टिकुनरम् से उनके सम्बन्ध क्योंकि इनको तो दशवीं शताब्दी में रखा जाना जाहिये। की कोई भी चर्चा नहीं है अतः इस बात की सम्भावना में क्यांकि उस निसिढ़ि की तिथि, जिसमें चन्द्रकीति के पूर्व- बाधा होती है। वर्ती कनककीत्तिदेव की चर्चा है, निश्चित आधारों मन्दिर में दूसरे मुनि, जिनके सम्बन्ध में हमें मन्दिर पर ६१०-६१७ ई० नियत हो चुकी है । इस प्रकार हमारे के खातों और जैन-साहित्य दोनों से ही स्पष्ट सूचना चन्द्रकीत्ति एक भिन्न व्यक्ति हैं जो स्वयं तिरुपट्टिकुनरम् मिलती है, वे मल्लिसेन वामन हैं । सं०६, १५ और २४१ में रहे और स्वर्गवासी हुए।
के शिलालेखों में उनका वर्णन है। सं०९ के शिलालेख में सं०१८और २२° के शिलालेखों में अनन्तवीर्य वामन उन्हें पुष्पसेन-मुनि-पुङ्गव वामन के गुरु मल्लिसेन वामनका वर्णन है, जोकि चन्द्रकीत्ति के शिष्य एक अन्य मुनि थे। सूरि बताया गया है। सं० २४ में, जोकि पुष्पसेन की पहिला शिलालेख मन्दिर की भीतर वाले कोरा वृक्ष के समाधि का है, उन्हें फिर पुष्पसेन का गुरू कहा गया है उत्तर-पूर्व की एक बलिपीठ पर पाया जाता है और दूसरा और मल्लिसेन नाम से वर्णन किया गया है। सं० १५ में, अरुणगिरि मेरु पर एक समाधि की शिला पर । पहिले जोकि उनकी प्रशसा में एक कविता है, उन्हें मल्लिसेन शिलालेख में केवल यह लिखा है कि बलिपीठ अनन्तवीर्य कहा गया है और उनका प्राध्यात्मिक नाम वामन है। का है जिसका अर्थ है कि मन्दिर के अर्चका को ज्ञात स्मरण रहे कि महान् शिक्षक एवं धर्म, दर्शन मादि के रीति से उसकी उपासना करनी चाहिये अर्थात् पीठ पर लेखक वामन कहलाते है; वामन शब्द विद्वत्ता के साथ मेंट (बलि) रखना (यह विश्वास था कि मुनि की प्रात्मा रखा जाता है और मल्लिसेन, अपने नाम मल्लिसेन की उसे खावेगी)। दूसरे शिलालेख में स्पष्ट लिखा है कि अपेक्षा बामन नाम से अधिक विख्यात थे, जैसा कि स्थानीय शिला उपरोक्त मुनि की स्मृति में स्थापित की गई जिन्हें परम्परा से सिद्ध होता है। वह एक साहित्यिक थे, अपने चन्द्रकीति को अपना प्राध्यात्मिक गुरु गिनने का विशिष्ट काल में बहुत प्रसिद्ध थे और संस्कृत, प्राकृत तथा तामिल सम्मान प्राप्त था। मन्दिर के खातों या स्थानीय परम्परा में लिखे गए कई ग्रन्थों के रचयिता थे। तामिल में उनके से इन मुनि के बारे में और अधिक कुछ ज्ञात नहीं होता। एक ग्रन्थ से, जिसका नाम 'मेरुमन्दार पुराणम्' है-और
है जिसमें से मन्दिर के भीतर के कुछ चित्रों को समझने के १. टी. एन्. रामचन्द्रन्, उपरोक्त ही, पृष्ठ ६०-६१। । २. टी. एन. रामचन्न्द्रन्, उपरोक्त ही, पृ. ६०-६१ । १. उपरोक्त ही, पृष्ठ ५८, ६२।