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म. महावीर रानीवन पर्सन कम था। भारतीय साहित्य में जैनियों की सेवा भनेकों ही जान सके, इस सबका श्रेय इन भंडारों के संग्राहकों विषयों से सम्बन्धित हैं और वे प्राकृत (मर्धमागधी) अप- एवं निर्मातामों को ही है। ग्रंश, संस्कृत, तामिल, कन्नड, पुरानी हिन्दी एवं पुरानी जैन साहित्य का निष्पक्ष एवं समालोचनात्मक अध्ययन गुजराती प्रादि विभिन्न भाषाओं में उपलब्ध है। जैना- जैनधर्म और जीवन के सही दृष्टिकोण को प्रस्तुत करने में चार्यों ने भाषामों को अपने उद्देश्य का मूल साधन माना घा, समर्थ हैं । जीवन की जैन दृष्टि से मेरा तात्पर्य उस जीवन धार्मिक उदारता के कारण उन्होंने किसी एक ही भाषा पर दर्शन से है जिसमें जैन मध्यात्म एवं नीति (माचार) बल नहीं दिया । धन्य है उनकी दूरदर्शिता को कि उन्होंने विषयक मूल सिद्धान्तों का न्यायपूर्ण विवेचन हो और जैन संस्कृत ओर प्राकृत भाषाओं में इतने विशाल साहित्य का उद्देश्यों की पूर्ति होती हो, आज के जैनधर्मावलंबियों की निर्माण किया तथा तामिल और कन्नड को इतना अधिक जीवन-दृष्टि से नहीं। सुसमृद्ध किया, इसके लिए मुझे विद्वज्जनों से विशेष कुछ आध्यात्मिक दृष्टि से सभी पात्मायें अपने अपने कहने की जरूरत नहीं है । गत कई वर्ष हुए डा. बलर ने विकास के अनुसार (गुणस्थान रूप से) धर्म के मार्ग में जैन साहित्य के विषय में लिखा था कि "व्याकरण, खगोल अपना यथायोग्य स्थान पाती हैं। प्रत्येक की स्थिति अपने शास्त्र और साहित्य की विभिन्न शाखामों में जैनाचार्यों अपने कर्मानुसार सुनिश्चित है और उनकी उन्नति अपनी की इतनी अधिक सेवाएँ हैं कि उनके विरोधी भी उस तरफ अपनी संभाव्य शक्ति पर निर्भर है। जैनियो के ईश्वर न प्राकर्षित हुए । जैनाचार्यों की कुछ रचनायें तो आज यूरोपीय तो विश्व के कर्ता हैं और न ही सुख दुखों के दाता । वे विज्ञान के लिए भी अत्यधिक महत्व पूर्ण है। दक्षिण में तो एक आध्यात्मिक मूर्ति हैं, जिन्होने (कृतकृत्यता प्राप्त जहाँ उन्होंने द्रविड़ों के बीच कार्य किया वहाँ उनकी कर ली है उनकी पूजा स्तुति केवल इसलिए की जाती है भाषामों के विकास में उन्होंने पूर्ण योग दिया । कन्नड़, कि हम भी तदनुकूल बनकर उसी कृतकृत्यत्व एवं सर्वज्ञत्व तामिल एवं तेलगु आदि साहित्यिक भाषायें तो जैनाचार्यों की स्थिति को प्राप्त कर सकें। प्रत्येक प्रात्मा को अपने द्वारा डाली हुई नींव पर ही निर्भर हैं और आज उनके ही कर्मानुसार सुख दुख का फल भोगना ही चाहिए, सच तो कारण पल्लवित होरही हैं, यद्यपि यह भाषा विकास का यह है कि हर प्रात्मा अपना भावी भाग्य विधाता स्वयं ही कार्य उन्हें अपने मूल उद्देश्य से बहुत दूर खींच ले गया हैं। किसी मात्मा के पुण्य-पाप का दूसरे के साथ विनिमय फिर भी इससे भारतीय भाषा एवं सम्यता के इतिहास में होना बिल्कुल ही निराधार है, अतः ऐसे विचारों से कोई उन्हें बड़ा महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त हुमा । एक बड़े जर्मन किसी का आश्रित या प्राधीन नहीं बनता है और विश्वास विद्वान ने कहा था जो शोष खोज से भी सिद्ध होता है कि एवं पाशा पूर्वक अपना कर्तव्य पालन करता हुआ निरंतर यदि माज ह्वलर जीवित होते तो भारतीय साहित्य में जैना- प्रगतिशील बना रहता है । यदि कोई पुरुष बाह्य अथवा चार्यों की सेवामों पर वे बड़े उच्च कोटि के शोधपूर्ण प्रांतरिक दबाव के कारण दुष्ट या हत्यारा बन जाता है विचार व्यक्त कर जैनत्व का महत्त्व बढ़ाते । जैनियों ने बड़ी तो उसे निराश नहीं होना चाहिए, क्योंकि अन्तरंग से तो सावधानी एवं चिंता पूर्वक प्राचीन पांडुलिपियों को सुर- वह पवित्र ही है अतः जब कभी काललन्धि आवेगी वह क्षित रखा है। जैसलमेर, जयपुर, पट्टन और मूडबद्री प्रादि स्वानुभूति कर पात्म कल्याण कर लेगा। स्थानों में जो इनके ही संग्रह (भंडार) हैं । निश्चय ही वे जैनधर्म में कुछ प्राचार संबंधी नियम सुनिश्चित हैं, राष्ट्रीय सम्पत्ति के एक भाग हैं । उन्होंने ये संग्रह (भंडार) जो मनुष्य को सामाजिक प्राणी के रूप में क्रमशः विकास ऐसी विद्वत्ता एवं उदार दृष्टि से तैयार किए कि वहां करने में सहायक होते हैं । जब तक वह समाज में रहता धार्मिक द्वेष का कोई नामोनिशान (चिह्न) तक न था। है तब तक माध्यात्मिक उन्नति के साथ साथ समाज सेवा जैसलमेर और पट्टन के भंडारों में तो कुछ ऐसी मूल बौर की भोर विशेष भाकृष्ट रहता है, पर यदि वह सांसारिक कृतियां उपलब्ध है, जो कि हम केवल तिब्बती भमुवाद से झंझटों को छोड़ मुनिपद अंगीकार करता है तो फिर