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उसका सामाजिक उत्तरदायित्व घट जाता है। जैनधर्म में नहीं। ये सद्गुण सुयोग्य नागरिकों के अनुकूल सामाजिक श्रावकों के कर्त्तव्य मुनियों जैसे ही होते हैं पर मात्रा एवं राजनीतिक वर्ग तैयार करते हैं जो मानवीय दृष्टि से (Degree) में कुछ कम होते हैं, अतः श्रावक अपनी प्रच्छे मादमियों के साथ शांतिपूर्ण सहअस्तित्व के लिए क्रियामों का पाचरण करता हुआ क्रमशः मुनिपद प्राप्त उत्साहित करते हैं। कर सकता है।
तीसरा विशिष्ट गुण है ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह जो अहिंसा एक ऐसा सिद्धान्त है जो जीवन में जैन दृष्टि धार्मिक एवं माध्यात्मिक उन्नति के साथ-साथ विभिन्न का प्रवेश कराती है, जिसका मूल अर्थ है प्राणीमात्र पर दशाओं व विभिन्न मात्राओं में सीखा जाता है। एक अत्यधिक करुणाभाव रखना। जैनधर्म की दृष्टि से सभी प्रादर्श धार्मिक पुरुष जब मन वचन कर्म के बन्धन से मुक्त प्राणी समान हैं और हर धार्मिक पुरुष का कर्तव्य है कि हो जाता है तो उसकी चिरसंचित निधि का अंतिम अवशेष उसके द्वारा (निमित्त से) किसी को कष्ट न पहुंचे। प्रत्येक उसका शरीर मात्र ही रह जाता है जिसे स्थिर (जीवित) प्राणी का अपना स्वतंत्र अस्तित्व एवं गौरव है और यदि रखने के लिए उसकी आवश्यकताएं भी अत्यधिक सीमित कोई अपना अस्तित्व कायम रखना चाहता है तो उसे रह जाती हैं और जब इनका भी धर्म साधन में कोई योग दूसरों के अस्तित्व का भी पादर करना चाहिए। एक नहीं रह जाता तो इन्हें भी वह सहर्ष परित्याग कर देता दयालु पुरुष अपने चारों भोर दया का वातावरण बनाये है। सुख-शांति की खोज मानव मात्र का एक चरम लक्ष्य रखता है । जैनधर्म में यह सुनिश्चित है कि बिना किसी है। यदि वैयक्तिक प्रवृत्तियों एवं इच्छामों को विधिवत् जाति, धर्म, रंग, वर्ग तथा स्थान के भेदभाव से जीवन रूप से काबू में रखने का प्रयत्न किया जाय तो फिर मनुष्य पूर्ण रूपेण पवित्र एवं सम्माननीय है । जैनधर्म की दृष्टि को मानसिक आनन्द एवं आध्यात्मिक शांति तो मिल ही से हिरोशिमा और नागासाकी का निवासी उतना ही पवित्र जाती है। स्वेच्छापूर्वक धन की आवश्यकताओं को सीमित एवं श्रेष्ठ है, जितना कि लंदन और न्यूयार्क का । उनके करना एक बहुत बड़ा सामाजिक गुण है जिससे सामाजिक काले-गोरे रंग, भोजन अथवा वेष भूषा ये सब बाह्य विशेषण न्याय एवं उपभोग की वस्तुओं का समुचित वितरण होता मात्र ही हैं । इस प्रकार अहिंसा की प्रक्रिया वैयक्तिक रहता है। सशक्त एवं श्रीमंत लोग निर्बल एवं गरीबों को तथा सामूहिक दोनों ही रूप से एक महान सद्गुण है और कूड़ा करकट या उपेक्षित कदापि न समझे, अपितु वे कोषादि कषायों से रहित एवं रागद्वेष विहीन । यह करुणा अपनी अभिलाषामों एवं आवश्यकतामों को स्वेच्छा का भाव निस्सन्देह बड़ा प्रभावक एवं शक्तिशाली होता है। पूर्वक क्रमशः नियंत्रित करें जिससे उपेक्षित वर्ग भी जीवन
जैनाचार का दूसरा महान गुण है भाईचारा या मैत्री में अच्छी तरह जीने के सुअवसर प्राप्त कर सके । ये गुण भाव (Neighbourliness)। प्रत्येक पुरुष को सत्य बोलना व्यक्ति या समाज में बाहरी दबाव अथवा कानून से नहीं चाहिए और दूसरे के गुणों का आदर करना चाहिए, जिससे थोपे जा सकते अन्यथा गुप्त पाप और छल एवं पाखण्ड की समाज में उसका मान मौर विश्वास बढ़े तथा साथ ही प्रवृत्तियां बढ़ने लगेंगी। अतः बुद्धिमान पुरुष को इन गुणों बह दूसरों के लिए सुरक्षा का वातावरण निर्माण में सहायक का क्रमशः अभ्यास कर एक उच्च मादर्श उपस्थित करना बन सकें। यह बिल्कुल व्यर्थ एवं हेय है कि अपने पड़ोसी चाहिए, जिससे एक प्रबुद्ध एवं सशक्त समाज का क्रमिक के साथ तो दुष्टता का व्यवहार करे और समुद्र पार विदे- विकास हो सके। शियों के प्रति विश्वबन्धुत्व एवं उदारता दिखाने का ढोंग व्यक्ति का बौद्धिक स्तर बनाने वाले बहुत से तत्त्व हैं, र। व्यक्तिगत कारुण्य पारस्परिक विश्वास एवं आपसी जैसे वंश परम्परा, वातावरण, पालन-पोषण, अध्ययन और सुरक्षा के भाव अपने पड़ोसी से ही भारम्भ होना चाहिए। अनुभव इत्यादि, पर उसके विचार एवं विश्वास (दृढ़ता) पौर फिर वे क्रमशः उत्तरोत्तर स्तर पर सक्रियरूप से का निर्माण तो बौद्धिक स्तर से ही होता है और वह यदि समाज में फैलाना चाहिए, कोरे रूक्ष सिद्धान्तों के रूप में बौद्धिक ईमानदारी एवं भावाभिव्यक्ति के ऐक्य में पिछड़