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तिरुपनिरन् (जिन-काची) दोनों ही समाधिवालों जैसे ही हैं, तो यह स्पष्ट हो के अवशेष जैन उद्गम के हो सकते हैं। उड़ीसा में जाता है कि इन लेख रहित तथा एक से स्तम्भों में से कुछ भुवनेश्वर के निकट जैन गुफाओं में से एक में चित्रों के कभी न कभी बदल गए होंगे या गलत स्थान पर रखे गए चिन्ह हैं। सित्तन्नवासल भित्तिचित्र, जिनका वर्णन फिर होंगे। स्थानीय परम्परा में पुष्पसेन को बहुत श्रेष्ठता दी किया जायगा, जैन हैं और पद्धति में अजन्ता तथा बाग के गई है, सम्भवतः उनके राजनैतिक प्रभाव के कारण मुनि- भित्तिचित्रों से सम्बन्धित हैं परन्तु जैन पाण्डुलिपियों के वास में एक कोठरी उनके नाम है और उनकी उपासना छोटे चित्रों से उनका कोई सम्बन्ध नहीं है । जैन मूर्तिकला बहुत कुछ उसी प्रकार की जाती है जैसे मल्लिसेन की। में कोई स्पष्ट विदेशी तत्व नहीं है। बाद के काल में जहाँ तक उनकी सिद्धता का प्रश्न है, शिलालेख सं०६ भवन निर्माण एवं मूर्तिकला में उनकी पूर्णता अपनी सुन्दरता पौर २४ से सहायता मिलती है। पहिले में उन्हें वामन टेक्नीकल पूर्णता और शानदार सजावट मे विस्मय में डाल कहा गया है और 'मुनियों में वृषभ, (मुनिपुंगव) और देती है। यह पाशा की जानी चाहिए थी कि कलाकारों "परवादिमल्ल" की उपाधि दी गई है, जिसका अर्थ है की ऐसी जाति चित्रकला में महान् कृतियां उत्पन्न करेगी। "विवाद में अपने शत्रुओं का सफल प्रतिद्वन्दी"। दूसरे शिला- जैनों में प्रथा प्रचलित थी 'छतों में जिनके जीवन की लेख में मल्लिसेन के प्रति उनकी भक्ति पर जोर दिया गया
मुख्य घटनामो को अंकित करना, जिन्हे मुख्यमन्दिर या है और दुखी तथा बढ़ते हुए मानव के लाभ के लिए उनके
दालान की एक कोठरी समर्पित है।' उसी प्रथा के अनुसार आशीर्वाद की प्रार्थना की गई है।
तिरुपरुट्ठिकुनरम् के त्रैलोक्यनाथ अथवा वर्धमान मन्दिर में __ पुष्पसेन का समाधि-स्तम्भ दूसरों से बड़ा है, दूसरों के मुख-मण्डप तथा संगीत-मण्डप की छत में रंगीन चित्रों की मध्य में स्थित है और उस पर का शिलालेख भी सबसे बड़ा एक श्रेणी हैं जो कि, जैसा पहले ही कहा जा चुका है, २४ है। इससे मुनि के अधिक महत्त्व का प्रमाण मिलता है, जैन तीर्थंकरों में से तीन की जीवन-गाथानों को चित्रित जिनकी स्मृति में स्तम्भ का निर्माण हुमा । ऐसा प्रतीत होता करती है। है कि यह स्तम्भ समाधि के स्तम्भों के समूह में अन्तिम
यद्यपि कला-समालोचकों को कला की दृष्टि से है और इस तथ्य से यह शंका संभव हो जाती है कि सम्भ
'रंगों से धोने' की इस नीति के विरुद्ध बहुत कुछ कहना वतः पुष्पसेन के पश्चात् उस स्थान में वैसे ही अन्य मुनि
है, क्योंकि ऐसे चित्रों में रूढ़ि बहुत बड़ा कार्य करती है, नहीं थे, या यदि कोई थे तो उन्होंने इस प्रकार महत्त्व
तथापि इसका स्वागत होना चाहिये ; क्योंकि इससे जैन प्राप्त नहीं किया, जिस प्रकार उनके पूर्ववर्ती मल्लिसेन
पुराण शास्त्र के देवताओं की जीवन-गाथामों को जानने एवं पुष्पसेन जैसों ने किया । अन्यथा उनकी समाधियों की
का एक सरल साधन मिलता है और उन लोगों से वर्णन भी आशा की जानी चाहिए।
सुनने के लिए बाध्य नहीं होना पड़ता, जो उन्हें जानते हों, मन्दिर के भीतर के मुनिवास में पाँच कोठरियाँ हैं,
न जैन पुराणों में देखने की आवश्यकता होती जिनमें से जिनमें से एक के सम्बन्ध में अभी निश्चय होना शेष है। अधिकतर दुर्भाग्य से अभी तक पाण्डुलिपि रूप में ही है। अन्य चार चन्द्रकीति अनन्तवीर्यवामन, मल्लिसेन वामन,
रंगों से धोने और चित्र बनाने की इस प्रथा ने, जिसे श्रीमती और पुष्पसेन वामन की प्रात्मानों के लिए है। ५ नाम
स्टीवेन्सन 'आधुनिक धुन' कहती है, स्पष्टतः शिला लेखन प्राप्य नहीं हैं, न तो मन्दिर के शिलालेखों में और न
की उस धुन का स्थान ले लिया है जिसकी प्रारम्भिक शतास्थानीय परम्परामों में बहुत सम्भव है कि वे चन्द्रकीति के
ब्दियों से प्रथा थी, और जो सम्भवतः पल्लव राजा पूर्ववर्ती हों जिनका नाम हम तक नहीं पाया है।
महेन्द्रवर्मन प्रथम से प्रारम्भ हुई तथा मूर्तिकला एवं भवनचित्रकला
निर्माण कला में पतन की ओर संकेत करती है । उपयोगिता महत्त्वपूर्ण जैन चित्र-कला के अवशेष बहुत कम बचे है। के दृष्टिकोण से देखनेपर इन चित्रों का निश्चय ही स्वागत उड़ीसा में रामगढ़ पहाड़ी में जोगीमेर गुफा में, भित्तिचित्रों किया जाना चाहिये; यह प्रथा हिन्दू मन्दिरों में भी फैल