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लिए मैं प्रायः सहायता लेता था-हमें पता चलता है कि गया कि मरुणामिरि-मेरु पर के समाधि स्तम्नों में से एक वे भाषाओं में संस्कृत एवं प्राकृत को भी जानते थे और उनके लिए है, जिसके सम्बन्ध में अद्भुत बात यह है कि मतों में जैन तथा अन्य पद्धतियों को। उन्होंने 'मेरुमन्दार- उस पर कुछ भी नहीं लिखा है। पुराणम्' को इस प्रकार प्रारम्भ किया है, "तामिलाल जहाँ तक इन मुनि के काल का प्रश्न है एक मौन, मोनर सोल्लालरीन" अर्थात् "मैं यहाँ एक का वर्णन परन्तु निश्चित, इंगित प्राप्य है । इरुगप्पा, जिसके शिलालेख तामिल में करता हूँ" (श्लोक सं० २) । इससे प्रगट होता १३८२ और १३८७-८८ ई. के हैं, पुष्पसेन के प्रति अपनी है कि उनके इससे पहिले के ग्रन्थ तामिल के अतिरिक्त भक्ति का वर्णन करता है और स्वयं को उनका शिष्य किसी अन्य भाषा में लिखे गए होंगे. यथा संस्कृत में। बताता है, परन्तु अपने गुरु के गुरु मल्लिसेन के प्रति अपने उनके संस्कृत ज्ञान ने उन्हें 'उभय-भाषा-कवि-चक्रवर्ती' वा दो भाव के सम्बन्ध में मौन है । उसके मौन का केवल एक ही भाषामों के कवि-सम्राट की उपाधि प्राप्त कराई। उनके अर्थ हो सकता है, और वह यह है कि इरुगप्पा के मन्दिर कुछ प्राप्य ग्रन्थ दर्शन पर संस्कृत ग्रन्थों की टीका है में प्रागमन के समय मल्लिसेन की मृत्यु हो चुकी थी। इस यथा पञ्चास्तिकाय, प्रवचनसार और समयसार की मेरु- प्रकार वह अनन्तवीर्य वामन के पश्चात् और इरुगप्पा के मन्दारपुराणम् और समयदिवाकर जोकि नीलकेसितिरटु आगमन के पहले आते हैं और इसलिये उन्हें चौदहवीं शतानाम के एक सामिल ग्रंथ की टीका है। उनके शिष्य पुष्प- ब्दी के पूर्वार्द्ध में रखा जा सकता है सेन ने जिसकी हम अभी चर्चा करेंगे, राजनैतिक महत्त्व अब हम ख्यातनामा पुष्पसेन पर पाते हैं जिनका स्यात् प्राप्त कर लिया था क्योंकि बुक्का द्वितीय (१३८५-१४०६ अपने काल में बहुत अधिक राजनैतिक प्रभाव था । बुक्का ई.) के सेनापति इरुगप्पा से उसका सम्बन्ध था, परन्तु द्वितीय के सेनापति एवं मन्त्री इरुगप्पा के ऊपर उनका उन्होंने साहित्यिक क्षेत्र में ही महत्त्व प्राप्त किया जान जो अधिकार था, उसके फलस्वरूप विजयनगर के राजाओं पड़ता है। यहाँ पुष्पसेन के सभी शिलालेखों से वह उच्च ने उन्हें संरक्षण दिया और मुनि ने राजकीय संरक्षण का श्रद्धा प्रकट है कि जो पुष्पसेन के हृदय में उनके लिए थी। लाभ उठाने में कोई कमी नहीं की। उन्होंने अपने राजकीय सं०९ में वह अपने-आपको मल्लिसेन का भक्त शिष्य शिष्य इरुगप्पा को मन्दिर में तथा अन्यत्र (विजयनगर) कहता है और सं० २४ में काव्यमय ढंग में "वह मधुमक्खी निर्माण करने के लिए तैयार कर लिया, जैसा कि शिलाजो श्री मल्लिसेन के चरणकमल पर मंडराती है।"' पर- लेख सं० ७और 8' में वर्णित है। पिछले शिलाम्परा उसे सम्पूर्ण मन्दिर के निर्माण से सम्बन्धित करती लेख में स्वयं मुनिको गोपुर के ऊपरी भाग का निर्माण है। यद्यपि यह सत्य नहीं हो सकता, तथापि इससे वह करने वाला बताया गया है। शिलालेख सं० ७, ९, उच्च श्रद्धा एवं महत्त्व प्रकट होता है जो वहाँ के जैनों में २३ व २४ पुष्पसेन के सम्बन्ध में हैं। सं० २३ व इन मुनि के लिए थे। मुनिवास में उनके लिए एक कोठरी २४ समाधि की वेदी पर हैं। पहले में उनका नाम है और निश्चित करने के अतिरिक्त, लोगों ने उनके लिए एक दूसरे में दुःखी मनुष्य समाज की मुक्ति के लिए उनका बलिपीठ बनाया है। इसको उन्होंने चोल बरामदे के उत्तर प्राशीर्वाद मांगा गया है। यह अद्भुत बात है कि समाधि की भीत में पाले में उस शिलालेख के नीचे रखा है जिसमें की वेदी में पुष्पसेन के शिलालेखों वाले दो स्तम्भ पाए उनकी प्रशंसा की एक कविता है जिससे कि उपरोक्त गए जबकि वहां चन्द्रकीर्ति का कोई भी स्तम्भ नहीं है जो शिलालेख स्वयं मुनि से सम्बन्धित हो जाय। आज इस हमारी सूची में पहले मुनि हैं। यदि हम इस बात को बलिपीठ की पूजा होती है जैसी कि इसी प्रकार के एक स्मरण रखें कि स्वयं मन्दिर में दो अन्य बलिपीठ या अन्य की, जोकि इससे नीचे ईंटों के स्तम्भ पर रखा हुमा स्तम्भ हैं, दोनों ही बिना लेख के, एक कोरा वृक्ष के है और उनके शिष्य पुष्पसेन के लिए है। मुझे बताया सामने और दूसरा मल्लिसेन वाले बलिपीठ के नीचे और
१. टी० एन० रामचन्द्रन्, उपरोक्त ही, पृष्ठ ६७ । १. उपरोक्त ही, पृ० ५७-८