________________
तत्वोपदेश-बहताला : एक समालोचन
लेखक-श्री दीपचन्द पांड्या
सित रस
का यो।
प्रदेशों
कुछ वर्ष पूर्व श्री प्राचार्य विनोबा भावे ने "भूदान" ३. कविवर दौलतराम जी : तत्त्वोपवेश छहढालाके सिलसिले में समस्त भारत में पैदल यात्रा का उप- यह दूसरी छहढाला की छाया रूप परिमार्जित और विकक्रम किया था और वे मेरे नगर केकड़ी (राजस्थान) में सित रचना है; जो इस लेख का मुख्य विषय है। भी ठहरे थे। यह यात्रा अपने ढंग की अनूठी थी। उनके साय प्रायः भारत के सभी प्रदेशों के समाज सेवक कार्य
छहढाला; गीति काव्य कर्ता भी थे। दर्शनार्थियों में तो अमेरिका तक के लोग
ढाल', भास, रासो, गीत और सज्झाय ये शब्द भी बाये थे। कहना होगा कि उक्त यात्रा विश्व में एक पुरानी हिन्दी की जैन पद्य-रचनामों के लिए प्रायः उपयुक्त महत्त्वपूर्ण यात्रा थी। तब व्यावर निवासी श्रीजालमसिंह शब्द हैं। जैनों में यह पद्य-साहित्य प्रचुर मात्रा में लिखा जी मेडतवाल जैन वकील के साथ मैने श्री विनोबा जी गया ग्रन्थ-भण्डारों में उपलब्ध है। 'चाल-ढाल' यह यौगिक से भेंट की थी और हमने उन्हें एक ग्रन्थ भी समर्पित शब्द प्रचलित है ही; ढाल का वाच्यार्य तर्ज किया जाना किया था। उनके साथ हुई ज्ञान चर्चा के दौरान में 'श्री उचित होगा। प्रधानतया छह ढालें-तर्जे पाई जाने से विनोबा जी ने 'छहढाला' के विषय में अपना मत व्यक्त इनका छहढाला नामकरण समुचित प्रतीत होता है। करते हुए इस प्राशय के वाक्य कहे थे-"छहढाला ग्रन्थ मुझे बहुत पसंद है। यह छोटा सा जैन ग्रन्थ विषय-संक- तत्वोपदेश छहढालाके रचयिता का संक्षिप्त परिचय लन की दृष्टि से 'सागर को गागर में भरे'-जैसा है दि. जैन ग्रन्थकारों में दौलतराम नाम के दो विद्वानों थोड़े में ही बहुत प्रमेय को लिए है । प्रस्तु;
को हम जानते हैं, जिनमें पहले बसवा निवासी खडेलतीन छहढाला
वाल जैन थे। इनकी साहित्यिक प्रवृत्तियों का काल पाठकों को विदित हो कि, दि. जैन समाज में विक्रम संवत् १७७७ से १८१८ तक पाया जाता है। इनका 'छहढाला' नाम से तीन विभिन्न रचनाएँ पाई जाती हैं। परिचय अनेकान्त' के गतांक में प्रकाशित "दौलतराम संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है
कृत जीवंधर-चरित; एक परिचय" लेख में पढ़िये । १.कविवर धानतरायजी : छहडाला-यह एक दूसरे इस ग्रन्थ के निर्माता थे। ये सासनी जिला 'सम्बोधपंचाशिका' नामक प्राकृत-भाषा के अन्य का रूपा- हाथरस के निवासी पल्लीवाल दि. जैन थे। आपके पिता न्तर है। रचना काल स. १७५८ विक्रम है। इसमें कुल का नाम श्रीटोडरमलजी था। जन्म वि०सं० १८५०-१८५५ ४६ पद्य हैं। प्रत्येक पद्य का प्रादि वर्ण नागरी वर्गमाला और समाधिमरण विक्रम मं० १९२३-२४ में हमा था।
है, अतएव यह कहीं-कही 'अक्षर बावनी भी इनकी केवल दो रचनाएँ उपलब्ध हैं । १. अध्यात्मपद संग्रह कही जाती है।
(विविध राग-रागनियों में), लगभग १०० से अधिक २.कविवर बुधजनजी: छहढाला-यह कवि की उत्तम पदों का संग्रह और २. छहढाला-अनेक धार्मिक स्वतन्त्र रचना जान पड़ती है। रचना काल विक्रम संवत् सूक्तियों से परिपूर्ण। जान पड़ता है, अध्यात्मपद संग्रह १८५६ है । इसमें कुल ६४ पद्य हैं । यही तत्त्वोपदेश छह- समय-समय पर रचे गये पद्यों का संग्रह है । इनका विस्तृत पाला का आधार है । कविता शब्दार्थ की दृष्टि से स्खलित परिचय अनेकान्त वर्ष ११ अङ्क ३ में पृ० २५२ पर कविहै मौर ढूंढारी बोली से प्रभावित है।
वर पं० दौलतराम जी लेख में पढ़िये ।