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श्रीक्षेत्र बडवानी
लेखक-प्रो० विद्याधर जोहरापुरकर
मध्यप्रदेश में विन्ध्य पर्वतमाला के एक भाग में चूल- है। बृहत् का प्राकृत रूप 'वड' होता है, बृहत्पुर 'वडगिरि यह क्षेत्र है । समीप ही स्थित बडवानी नामक नगर वानी' का संस्कृतीकरण होना चाहिए। यहां की मूर्ति को से इस क्षेत्र को भी बरवानी कहते हैं। यहाँ पर्वत पर 'बावनगज' तथा बड़ेबाबा' भी कहा जाता है, प्रतः पाषाण में उत्कीर्ण एक बृहत्काय मूर्ति है। इसकी ऊंचाई प्रस्तुत श्लोक में उल्लिखित 'बृहदेव' इसी मूर्ति का उल्लेख ८४ फीट कही गई है। चरणों के समीप गोमुख यक्ष तथा मानने में कोई हानि नहीं है। इस स्थान को 'श्रीमती चक्रेश्वरी यक्षिणी की मूर्तियो हैं, अतः यह मूर्ति ऋपभदेव आदि निषिद्धिका' कहा है, यह सम्भवत यहाँ से किसी की सिद्ध होती है। इस क्षेत्र के जो ऐतिहासिक उल्लेख मुनि के निर्वाण का सूचक है। मिले हैं, उन्हें समयक्रम से प्रस्तुत करना इस लेख का श्रुतसागर ने षट्प्राभृतटीका में बोधप्राभूत गा० २७ उद्देश्य है।
का विवरण करते हुए कई तीर्थक्षेत्रों के नाम दिए है। प्राकृत निर्वाणकांड में-जिसका समय ता कर्तृत्व इनमें चलाचल (चूलगिरि) भी सम्मिलित है। इनका भनिश्चित है-चूलगिरि का वर्णन इस प्रकार है- समय १५वीं सदी का उत्तरार्ध है।
बडवाणीवरनयरे दक्विणभायम्मि चलगिरिसिहरे। इसी समय के भट्टारक गुणकीति के मराठी प्राथ इंदजियकुंभकण्णा णिवाणगया णमो तेसि ॥१२॥ धर्मामृत' में दो वाक्यों में इस क्षेत्र का उल्लेख है (१०
इसके अनुसार यह क्षेत्र इन्द्रजित तथा कुम्भकर्ण का ७४)-'बडवाणि नगरि चुलगिरि पर्वति कुंभकर्ग इंद्रजित निर्वाणस्थल है। प्राचीन पुराणग्रंथो (उत्तरपुराण, पद्म- मुख्य करौनि पाऊठ कोडि मुनि मिद्ध जाते त्या सिद्धपुराण प्रादि) में इन्द्रजित व कुम्भकर्ण के दीक्षा लेने का क्षेत्रासि नमस्कार माभा । वडवाणि नगरि त्रिभुवनतिलकु तो वर्णन है, किन्तु उनके मुक्तिस्थान का उल्लेख नहीं है। त्या देवासि नमस्कार माझा।' इसमें बावनगज मूति को
अपभ्रंश निर्वाणभक्ति में--जिसके कर्ता उदयकीर्ति 'त्रिभुवनतिलक देव' कहा गया है। हैं (समय अनिश्चित है)-यह उल्लेख मिलता हैं
प्रायः ऐसा ही वर्णन १६वीं सदी पूर्वाध के कवि मेघबडवाणी रावणतणउ पुत्त । हउं वंदउ इंदजित मुणि पवित्त ।। राज की गुजराती तीर्थवंदना में है
(मेरे संग्रह की हस्तलिखित प्रति) वडवानि नगर सुतीर्थ पश्चिम चुलगिरि जानिजोए । इसमें रावग के पुत्र इंद्रजित के (निर्वाण ?) का कुंभकर्ण इंद्रजित सिद्ध हवा ते वखाणिजोए ॥१५ उल्लेख है।
वलि ते सुभि मझारी त्रिभुवनतिलक छे जिणप्रतिए । मदनकीर्ति की शासनचतुस्त्रिशिका में-जो १३वीं
चोथा कालनि होए तीन काल वंदामियए ॥१६ सदी के पूर्वार्ध की रचना है-यह श्लोक है
यहां बावनगज मूर्ति को 'चौथे काल की' कहा है। द्वापंचाशदनूनपाणिपरमोन्मानं करैः पंचभिः यं चक्रे जिनमर्ककीर्ति नृपतिग्रीवाणमेकं महत् ।
सोलहवीं सदी-उत्तरार्ध के कवि ब्रह्म ज्ञानसागर तन्नाम्ना स बृहत्पुरे वरबृहद्देवाल्यया गीयते
ने अपनी तीर्थावली में यह वर्णन दिया है-(यह उद्धरण श्रीमत्यादिनिषिद्धिकेयमवताद् दिग्वाससा शासनम् ॥६ ।
हमारे हस्तलिखित संग्रह में मौजूद है) इसमें 'पर्ककीति राजा' द्वारा ५२ हाथ प्रमाण मूर्ति १. पुराणों के अनुसार प्रकीति प्रथम चक्रवर्ती के निर्माण का वर्णन है तथा स्थान का नाम बृहत्पुर दिया सम्राट भरत के पुत्र थे।