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अनेकान्त
वर्ष १५ .
है। मनेक भाव सूक्ष्म हैं, उनका चित्रातून प्रासान नहीं अपना मूल्य था । लेखक ने मष्ट किया है कि निमित्त के था। सब कुछ लगन और परिश्रम से सम्पन्न हो सका है। न मानने से सम्यक्चारित्र का निरास हो जाता है, जिसके इन चित्रों की सहायता से बालक छहढाला के अर्थ को प्रभाव में केवल सम्यवस्व धारण करने पर भी यह जीव प्रासानी.से हृदयङ्गम कर सकेंगे। बाल-मस्तिष्क पर मोक्ष नहीं पा सकता। इसके अतिरिक्त एक मात्र निश्चय चित्रशैली से प्रति किया हुआ पद्य का भाव अमिट हो को ही माननेवाले एकांतपक्ष के दोष से दूषित माने जायेंगे । जाता है। अतः मैं इस कार्य की सराहना करता हूँ।
मैं इस पुस्तक की दो दृष्टियों से प्रशंसा करता हूँ - अनुवाद भी पासान है, उससे शब्दार्य और भावार्थ दोनों स्पष्ट हो जाते है। अन्त में परिशिष्ट 'क' के अन्तर्गत
पहली तो इसलिए कि कहानजी स्वामी के मत की समीक्षा लक्षणात्मक शब्दों का मतलब भी बुभिगम्य है।
होते हुए भी न तो उनके प्रति श्रद्धा भाव में कमी आई है तात्त्विक विचार
और न शैली में कटुता या रोष की अभिव्यक्ति है । इसके लेखक-पं० प्रजितकुमार शास्त्री, प्रकाशक-श्रीकृष्ण
विपरीत लेखक का यह पूर्ण विश्वास है कि अभी तक श्री जैन, मंत्री-श्री शास्त्र स्वाध्यायशाला, श्री दिगम्बर जैन
कहानगी स्वामी के सामने इस प्रकार के विचार सुसयोजित पार्श्वनाथ मन्दिर, दिल्ली, पृष्ठ-११२, मूल्य-चार पाने।
रूप में रक्खे ही नहीं गये, अन्यथा वे इतने उदार हैं कि प्रस्तुत पुस्तक में जैन धर्म से सम्बद्ध ७० विषयों पर अपनी मान्यता में अवश्य ही सुधार कर लेते। लिखा गया है । विशेषता यह है कि 'पावश्यक उदाहरण दूसरी इसलिए कि गम्भीर और सूक्ष्म विषयों का प्रति प्राचार्य कुन्दकुन्द के ग्रथों से ही संकलित करके रक्खे गए पादन इतने पासान ढंग से किया गया है कि प्रत्येक की हैं। ऐसा करने में लेखक की दृष्टि से कहानजी स्वामी के समझ में आ जाता है । भाषा प्रासान है और शैली में भी समक्ष यह स्पष्ट करना रहा है कि प्राचार्य कुन्दकुन्द ने दुरूहता नहीं है। यदि गम्भीर और सूक्ष्म विषयों का निश्चय और व्यवहार नयों में केवल निश्चय को ही नहीं, आमान और स्पष्ट विश्लेषण विद्वत्ता है, तो 'तात्त्विक अपितु व्यवहार को भी तथा उपादान और निमित्त में विचार' का लेखक अवश्य ही इस परिधि में आ जाता है। केवल उपादान को ही नहीं, अपितु निमित्त को भी महत्ता इससे पुस्तक की उपादेयता भी सिद्ध ही है। दी। उसके अनुसार प्रपेक्ष कृत दृष्टियों से दोनों का अपना
-प्रेमसागर जन
पद
ज्ञान हिंडोला बैठिक झूल चेतनराय ॥ टेक ॥ जिन वृष बाग सुहावनी, जप तप व्रत तरु सार । तत्त्व सुरुचि साया झुकी, जुग नय डोरी डारि ॥ १॥ सुध पान पटली विष, सुमति नारि संग पाय। अजफा गीत सुगावही भविजन को सुषदाय ॥२॥ सरधा सषी सु झुलावही सिवरमणी ललचाय। सघन घटा विग्यान की छाई चहूँ दिसि ध्याय ॥ ३ ॥ जिन धुन घन गरजन लगे समरस जल बरसाय । कर्म सकल मल धोय के लहसुष 'मुन्दर' गाय ॥४॥