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श्रीक्षेत्र बरबानी
वडवाणि वरनयर तास समिप मनोहर ।
है, जिसमें बलात्कारगण के भट्टारक शुभकीति तथा बघेरचलगिरिंद्र पवित्र भवियण-जन-बढ़सुबकर। वाल 'सं० पदम' का उल्लेख है। ये मूर्तियां बावनगज कुंभकर्ण मुनिराव इंद्रजित मोक्ष पधाव्या।
मूर्ति के समीप के मंदिरों में हैं। पर्वत के शिखर पर जो सिद्धक्षेत्र जगजाण बहुजन भवजल ताव्या।
मंदिर है, उसमें सं० १५१६ का लेख है। इसमें काष्ठाबावन संघपति पायकरि बिंब प्रतिष्ठा बहुकरी। संब-माथुरगच्छ की क्षेमकीति-हेमकीति-कमलकीति-रत्नब्रह्म ज्ञानसागर वदति कीति त्रिभुवनमा विस्तरी॥६४ । कीति वाली भट्टारक परम्परा का उल्लेख है। रत्नकीर्ति
ने सं० १५१६ में उक्त मंदिर का जीर्णोद्वार किया था। इसमें कई संघपतियों द्वारा इस क्षेत्र पर की गई
इस मन्दिर के अहाते में यक्षयक्षिण्यादि परिवारसहित बिंबप्रतिष्ठा का वर्णन अधिक है।
चौबीस तीर्थंकरों की मूर्तियां हैं जो काल प्रभाव से बहुत सत्रहवीं सदी-उत्तरार्ध के भट्टारक विश्वभूषण की घिसी-पिटी स्थिति में पहुंच गई हैं। इनकी शैली ११वींसर्वत्रैलोक्य जिनालय जयमाला में भी वडवानी-बावनगज १२वीं सदी की प्रतीत होती है। का उल्लेख है
शिखर से कुछ नीचे के एक छोटे मन्दिर में सं० बडनगरेवडवाणमुनिंदाबावनगज सेवित मुनि चन्दा ॥३६ १९६७ की एक मूर्ति है-यह बलात्कारगण के भट्टारक
दि. जैन डिरेक्टरी में कहा है कि इस क्षेत्र पर २२ चन्द्रकीति के शिष्य गुणचन्द्र द्वारा प्रतिष्ठित है। शिखरस्थ मन्दिर हैं, उनके जीर्णोद्धार का समय सं० १२३३, १३८० मन्दिर में तथा पर्वत की तलहटीमें स्थित सोलह मन्दिरों तथा १५८० है, प्रतिष्ठाचार्यों के नाम नंदकीति और राम- में सं० १९३६ में स्थापित की हुई कई मूर्तियां हैं, इनमें
प्रतिष्ठाचार्य का नाम नहीं है, सिर्फ 'परमदिगम्बर-गुरूपयहां के दो शिलालेख जो सं० १२२३ के हैं तथा जिन
देशात्' लिखा है । तलहटी के मन्दिरोंके सन्मुख एक मानमें लोकनन्द-देवनन्द-रामचन्द्र का उल्लेख है-अनेकान्त स्तम्भ सं० १६६५ में स्थापित किया गया है। सं० २००१ वर्ष १२ पु० १९२ में प्रकाशित हुए हैं।
में प्राचार्य शान्तिसागर के शिष्य मुनि चन्द्रसागर की यहाँ
मृत्यु हुई, उनकी समाधि भी स्थापित है। सं० २००५ में हमने गत मास इस क्षेत्र के दर्शन किये। उस समय
कानजी स्वामी द्वारा स्थापित दो प्रतिमाएं दो वेदियों पर उक्त दो लेखों के दर्शन नहीं हो सके। हमने जो मूर्तिलेख
विराजमान हैं। इनके समीप एक कमरे में कई भग्न प्रतिदेवे उनमें एक संवत् १२४२ का है, एक सं० १३८० का
माएं हैं जो अलंकरण-शैली के कारण ११वीं-१२वीं सदी १. जैन साहित्य और इतिहास पृ० ४२
की प्रतीत होती हैं।
पद राग कल्याण मोहनी तीन्यों लोक ठगे ॥ टेक ।। भये प्रमत मोहनी लागी, जोग जुगति न जगे ॥१॥ सुर नर नारक पशु पंखी जन मुकति • मंत्र दगे । सुधि बुधि विकल भये घर भूल्यो पर के रंग रंगे ॥२॥ करि परतीति अपनपो मूल्यो ठग के संग लगे। निरूपम रतन हरे तीन तीन्यौ सरवस ले उमगे ॥३॥ दिस्टि दैखि सचर चिर इहि विधि भव वन वीचि खये। रूपचन्द चित चेत चतुर मति जोगि जागी भगे ॥४॥