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वर्ष १५ में सैकड़ों रचनायें निबद्ध की, जो माज भी राजस्थान के के दरबार में रहकर हिन्दी भाषा की उत्कृष्ट कृति विहारी जैन भण्डारों में संग्रहीत की हुई मिलती हैं। सकलकीर्ति सतसई की रचना की थी। दादू महाराज के कितने ही के इन शिष्यों में भुवनकीर्ति, ब्रह्मजिनदास, ज्ञानभूषण, शिष्य राजस्थानी थे। इन्होंने हिन्दी में बहुत से साहित्य शुभचन्द्र, सकलभूषण, सुमतिकीति के नाम उल्लेखनीय है। का सृजन किया है। राजस्थान में इसी प्रकार हिन्दी एवं राजस्थान के उदयपुर, डूंगरपुर, बांसवाड़ा, सागवाड़ा राजस्थानी के २०० से भी अधिक विद्वान् हुए होंगे जो आदि प्रदेश इन ग्रन्थकारों की गतिविधियों के मुख्य केन्द्र जीवन पर्यन्त साहित्य-सेवा में व्यस्त रहे, लेकिन अभी इन थे। इसी तरह पंडित रायमल एवं जगन्नाथ, क्रमशः विद्वानों की साहित्यिक सेवाओं का कोई मूल्यांकन नहीं हो वराट एवं टोरायसिंह के निवासी थे और इन्होंने यहीं सका है। छोहल, ठक्कुरसी, वूचराज, छीतर ठोलिया, रहते हुए ग्रंथों की रचना की थी। पं० मेधावी ने नागौर विद्याभूषण, ब्रह्म रायमल्ल, आनन्दघन, हेमराज (द्वितीय) में संवत् १५४१ में धर्मसंग्रह श्रावकाचार की रचना हर्षकीर्ति, जोधराज, खुशालचन्द, टोडरमल, जयचन्द, की थी।
दौलतराम, दिलाराम आदि विद्वान् राजस्थानी ही थे। प्राकृत एवं अपभ्रंश साहित्य के भी राजस्थान में इस प्रकार राजस्थान की भूमि साहित्यिक विद्वानों को काफी विद्वान् हुए । प्राकृत भाषा की प्रसिद्ध रचना 'जम्बू- जन्म देने की दृष्टि से सदैव उर्वरा रही है। जिसके लिए द्वीपप्रज्ञप्ति' के ग्रंथक र प्राचार्य पद्मनन्दि राजस्थानी हमें गौरवान्वित होना चाहिए। विद्वान् थे। पद्मनन्दि ने अपने आपको गुणगणकलित, राजस्थान के ग्रंथ-संग्रहालय भी कम महत्त्व के नहीं त्रिदंडरहित, त्रिशल्यपरिशुद्ध प्रादि विशेषणो से युक्त लिखा हैं । वैदिक एवं जैन दोनों ही धर्मों के अनुयायियों ने है। बारां नगर को इनके जन्म स्थान होने का सौभाग्य भारतीय साहित्य की सुरक्षा में गहरी दिलचस्पी ली। प्राप्त हुआ था। इसी प्रकार अपभ्रंश भाषा की प्रसिद्ध राजा महाराजानों ने अपने संरक्षण में पोथीखाने स्थापित रचनायें भविसयत्तकहा के लेखक पं० धनपाल एवं धम्म- किए। उनमें आज भी हजारों हस्तलिखित ग्रंथों का परिक्खा के रचयिता महाकवि हरिपेण इसी प्रदेश के रहने संग्रह मिलता है। दूसरी ओर जनों ने तो ग्रंथों के संग्रह वाले थे। पं० धनपाल की जन्म भूमि चित्तौड़ थी। विविध एवं उनकी सुरक्षा का जो प्रादर्श उपस्थित किया है वह भाषाओं के ज्ञाता, अनेक ग्रंथों के रचयिता, जैन दर्शन के अन्य सभी समाजों के लिए अनुकरणीय है । युद्धों एवं अन्य महान् ज्ञाता हरिचन्द्र सूरि को राजस्थानी होने का गौरव प्राकृतिक उपद्रवों के मध्य में भी जिस ढंग से इन्होंने अपने प्राप्त है।
ग्रंथ संग्रहालयो को नष्ट होने से बचाया वह सर्वथा प्रशंसहिन्दी एवं राजस्थानी भाषा के विद्वानों की तो अभी नीय है । राजस्थान में राजकीय पोथीखानों, राजा-महासंख्या भी नहीं की जा सकती। यहाँ इन भापामों के राजाओं के निजी संग्रहालय, ब्राह्मण पडितों के घरों में सैकड़ों विद्वान् हुए जिनकी साहित्यिक सेवायें इतिहास में संगृहीत ग्रंथों के अतिरिक्त जैन ग्रंथ संग्रहालयों में विशाल स्वर्णाक्षरों में लिखी जाने योग्य है । इस दिशा में अभी साहित्य का संग्रह है। राजस्थान में २०० से भी अधिक जितनी खोज हुई है वह यहाँ के विद्वानो की सेवाओं को छोटे बड़े संग्रहालय हैं। जिनमें दो लाख से भी अधिक देखते हुए नगण्य सी है। हिन्दी एवं राजस्थानी भाषा की ग्रंथों का संग्रह होगा। ये ग्रंथ संग्रहालय अधिकांशत: व्यसेवा करने में जैन एव जैनेतर दोनों ही धर्मों के कवियों वस्थित एवं सुरक्षित है । ये समाज के स्वाध्याय मन्दिर हैं का समान योग है। हिन्दी की लाडली मीरा पर राजस्थान जिन्हें आज की भाषा में शोध प्रतिष्ठान कहा जा सकता को गौरव है। इन्होंने अपने पदों द्वारा भक्ति की जो है। इन भण्डारों में जैन एवं जैनेतर दोनों ही विद्वानों के धारा बहाई थी वह सदैव गतिमान रहेगी। जैन कवि लिखे हुए ग्रंथों का संग्रह है। इनमें साहित्य की अमूल्य पद्मनाभ चित्तौड़ के थे । इन्होंने अपनी बावनी को १४८६ में निधियां सुरक्षित हैं । जैसलमेर के भण्डार में कुवलयमाला, समाप्त किया था । महाकवि बिहारी ने पामेर के महाराजा काव्यादर्श, काव्यमाला, काव्यालंकार, वक्रोक्तिजीवित,